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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
को पाकर वसुदेव और देवकी के हर्ष का पार नहीं था 1 आज उन्होंने पहली बार अपने पुत्र का मुख निःशंक रूप से देखा था।
इसके बाद सबने मिलकर राज्य के भविष्य के बारे में निर्णय किया । तद्नुसार कृष्ण ने कारागार में पड़े हए महाराज उग्रसैन को वहां से मुक्त किया तथा राजसिंहासन पर लेजाकर बैठाया। फिर सबने मिलकर कंस आदि का अन्तिम संस्कार किया। कंस की पत्नी जीवधशा रुदन करतो हई तथा ऋोध में भरी हुई वहाँ से चलकर अपने पिता राजगृह नरेश जरासन्ध के पास पहँच गई।
सत्यभामा और रेवती का विवाह-एक दिन यादववंशी नरेश गण राजसभा में बैठे हुए थे, तभी विजया-पर्वत की दक्षिण श्रेणो के नगर रथनपुर चक्रवाल के नरेश सुकेतु का दूत सभा में पाया। उसने बड़े प्रादर प्रौर विनय के साथ शत्रुनों का संहार करने वाले श्रीकृष्ण से कहा-'हे देव ! विजया पर्वत की दक्षिण श्रेणी में रथनापुर चक्रवाल प्रसिद्ध नगर है। वहां के अधिपति महाराज सकेत ने मुझे मापकी सेवा में भेजा है। उन्होंने सिंहवाहिनी नागशय्या पर पारोहण, पाँचजन्य शंख को फंकने और प्रजितंजय धनुष के 'सन्धान से प्रापको परोक्षा करके यह निवेदन किया है कि पार मेरे शुलक्षणा पुत्री सत्यभामा को अंगीकार करलें। इससे विगाधर लोक का गौरव बढेमा ।' दूत के बंचन सूनकर प्रसन्न चित्त से कृष्ण ने अपनी सहमति देती।
सहमति प्राप्त होते ही दूत वहाँ से रथनूपुर पहुंचा और वहाँ अपने स्वामी सुकेतु से कृष्ण और बलभद्र भाइयों की प्रशंसा करके कार्य सिद्ध होने की सूचना दी। दूत-मुख से यह हर्ष-समाचार सुनकर राजा सुकेतु और उसका भाई रतिमाल अपनी-अपनो कन्यानों को लेकर चल दिए। सुकेतु की कन्या का नाम सत्यभामा था मोर वह रानी स्वयंप्रभा की पुत्री थी। रतिमाल की कन्या का नाम रेवतो या। मथरा पहुँच कर उन्होंने बड़े समारोह के साथ विवाह-मण्डप तयार कराया। उसमें रतिमाल ने अपनी पुत्री रेवती बलभद्र के लिए अर्पित की और सूकेत ने अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह कृष्ण के साथ कर दिया । इस विवाह-सम्बन्ध से समस्त यादव, विशेषत: माता रोहिणी और देवकी अत्यन्त सन्तुष्ट थीं।
यादवों के प्रति जरासन्ध का अभियान----कसको स्त्री जीवधशा जब गिरिब्रज पहँचो मोर जरासन्ध के आगे करुण विलाप करते हुए उसने यादवों का नाश करने के लिए अपने पिता को भड़काया तो जरासन्ध भी अपनी पुत्रों पौर दामाद के प्रति यादवों द्वारा किये गये अनुचित कार्य से क्षुब्ध हो उठा । उसने पुत्री को सान्त्वना देकर यादवों के विनाश का निश्चय किया। उसने अपने महारथो पुत्र कालयवन को चतुरंगिणी सेना के साथ यादवों का समूल विनाश करने के लिये भेजा ।
इधर श्रीकृष्ण ने उग्रसैन को कारागार से मुक्त करके उन्हें मथुरा का राज्य सोंप दिया तथा अपने पिता मन्द तथा अपने बालसखा गोपालों का धन आदि से उचित सम्मान करके उन्हें यादर सहित विदा कर दिया। सब कार्यों से निवृत्त होकर वे शौर्यपुर नगर चले गये और वहाँ सुखपूर्वक रहने लगे।
कालयवन विशाल सेना लेकर चला । दूतों द्वारा समाचार जानकर यादव लोग भी सेना सजाकर शत्रु का प्रतिरोध करने आगे बढ़े। मार्ग में दोनों सेनामों का सामना हमापौर भयंकर युद्ध हवा । कालयवन को श्रीकृष्ण के हाथों करारी पराजय मिली और उसे रणभूमि छोड़कर भागना पड़ा। किन्तु वह पुन: सेना लेकर जा चढ़ा। इस प्रकार उसने सोलह वार अाक्रमण किया और प्रत्येक बार उसे पलायन करना पड़ा। सत्रहवीं वार अतुल मालावर्त पर्वत पर यादवों के साथ उसकी करारी मुठभेड़ हुई किन्तु इस युद्ध में श्रीकृष्ण के द्वारा उसकी मृत्यु हो गई।
अपने पुत्र की मृत्यु के दारुण समाचार सुनकर जरासन्ध को यादवों पर भयंकर क्रोध माया और उसने अप्रतिम धीर भ्राता अपराजित को यावबों से बदला लेने के लिये भेजा। उसने तीन सौ छयालीस वार यादवों के साथ यूद्ध किया। अन्त में श्रीकृष्ण के वाणों ने उसे भी कालयवन के निकट पहुंचा दिया।
भगवान का गर्भ कल्याणक-सीपंकर प्रभु सौर्यपुर में माता शिवादेवी के गर्भ में पाने वाले हैं। यह बात प्रवधिज्ञान से जानकर इन्द्र ने छह माह पूर्व कुबेर को रत्नवर्षा की भाशा दी। कुबेर ने भगवान के जन्म पर्यन्त-पन्द्रह माह तक महाराज समुद्रविजय के महलों में प्रतिदिन तीन बार साढ़े तीन करोड़ रत्नों की एक बार के हिसाब से