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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास आदि के तुमुलनाद के होते ही दोनों सेनायें एक दूसरी से जूझ पड़ीं। मनुष्यों की लाशों से मैदान पट गया । घोड़ों और हाथियों की भयंकर चीत्कारों से प्राकाश पट गया। वाणों को अजस्र वर्षा से सूर्य तक ढंक गया। तलवार, चक्र, गदा, परशु और नाना अस्त्र-शस्त्रों के प्रहारों से रुधिर को नदो बहने लगो। कुमार वसुदेव के हस्त-लाधव और शस्त्र-संचालन की निपुणता ने शत्रु-पक्ष के महावीरों को हतप्रभ कर दिया। तब उन्होंने मिलकर एक साथ वसुदेव पर पाक्रमण किया । किन्तु कुमार ने बड़ो कुशलता से उनका सामना किया। कुछ न्यायप्रिय राजारों ने कहा कि एक व्यक्ति के ऊपर अनेक वीरों का आक्रमण करना घोर अन्याय है। तब जरासन्ध ने माज्ञा दी कि अब एक-एक राजा इस युवक के साथ युद्ध करे । जरासन्ध का आदेश पाकर एक-एक राजा क्रम से कुमार के साथ युद्ध करने लगा । किन्तु कुमार के असह य वाणों के प्रहार के आगे टिक नहीं सके । तब राजा समुद्रविजय की बारी आई। वे रथ में प्रारूढ़ थे। रथ वेग से वसुदेव को ओर बढ़ा । वसूदेव ने अपने पूज्य अग्रज को देखकर सारथो दधिमुख से कहा -'दधिमुख ! ये मेरे पिता के तुल्य हैं । इनकी सुरक्षा का ध्यान रखते हुए मुझे युद्ध करना है।' जब दोनों रथ प्रामने-सामने प्रागये तो उस युवक को देखकर समुद्रविजय सारथी से बोले- 'भद्र ! इस सौम्य युवक को देखकर मेरा मन स्नेहाकुल हो रहा है । मेरो दाहिनी प्रांख और भुजा भी फडक रही है । इसका फल तो बन्धु-मिलन है। किन्तु युद्ध भूमि में यह कैसे संभव हो सकता है ?' सारथी बोला'स्वामिन् ! यह शत्रु अजेय है । आप इसे जोतकर यश के भागी बनेंगे । तब बन्धु-समागम भी होगा। समुद्रविजय कुमार से बोले-'प्रिय । तुमने अब तक कोशल का प्रदर्शन किया है। अब भी वही कौशल दिखानः । ध्यान रहे, मैं समुद्रविजय हूँ।' कुमार वेष बदले हुए थे ही, पावाज भी बदल कर बोले-'तात ! चिन्ता न करें। वही कौशल अब भी दिखाऊँगा । आप समुद्रविजय हैं तो मैं संग्रामविजय हैं। पहले बाण माप चलावें।' समुद्रविजय ने बाण सन्धान किया, किन्तु कुमार ने उसे मार्ग में ही अपने बाण से काट दिया। समुद्रविजय ने जितने बाण चलाये, सबको कुमार ने काट दिया तब क्रोध में भरकर समुद्रविजय ने दिव्यास्त्र चलाना प्रारम्भ किया। कुमार ने भी उनका उसी प्रकार उत्तर दिया। इतना ही नहीं; उन्होंने समुद्रविजय के रथ, सारथी, और घोड़ों को भी पाहत कर दिया। तब समुद्रविजय ने भयानक रौद्रास्त्र चलाया, कुमार ने ब्रह्मशिर नामक दिव्यास्त्र से उसे भी काट डाला। कृमार के रण कौशल और हस्तलाध को देखकर शत्र पक्ष के योद्धा भी उनकी प्रशंसा करने लगे। दोनों ही वीर अप्रतिम थे। जब बहुत समय युद्ध करत हुए व्यतीत हो गया, तब कुमार ने अपने नाम से अंकित एक बाण अपने बड़े भ्राता के पास भेजा । बाण के साथ एक सन्देश भी संलग्न था। वाण मन्थर गति से चलकर समुद्रविजय के पास पहुचा। समुद्रविजय ने सन्देश पड़ा। उसमें लिखा था--जो अज्ञात रूप से निकल गया था, वहीं मैं मापका अनुज वसुदेव हूँ। आज सौ वर्ष पश्चात् पुन: आत्मीय जनों के निकट पाया हूँ। मैं मापको सादर प्रणाम करता हूँ।' सन्देश प्राप्त होते ही समुद्रविजय रथ से कूदकर भुजा पसारे हुए अपने छोटे भाई की मोर दौड़े। वसुदेव भी रथ से उतर कर आगे बढ़े और अपने प्रादरणीय अग्नज के चरणों में गिर पड़े। बड़े भाई ने उन्हें उठाकर अपने भर लिया। दोनों की आंखों से पानन्दाथ बहने लगे। उनके अन्य भाई भी प्रा गये। सभी गले लगकर मिले । जरासन्ध आदि राजा भी वसुदेव का परिचय पाकर बड़े सन्तुष्ट हुए। फिर शुभ बेला में वसुदेव का रोहिणी के साथ विवाह हो गया। विवाह के बाद महाराज जरासन्ध, समुद्रविजय मादि नरेश और वसुदेव एक वर्ष तक राजा रुधिर के अतिथि रहे । एक दिन देवी रोहिणी सुख शया पर सो रही थीं। उन्होंने रात्रि के अन्तिम प्रहर में चार शुभ स्वप्न देखे । प्रथम स्वप्न में गर्जन करता हुपा श्वेत गज देखा । द्वितीय स्वप्न में उन्होंने उन्नत बलभद्र बलराम लहरों वाला गर्जन करता हुआ समुद्र देखा । तृतीय स्वप्न में षोडशकलायुक्त पूर्ण चन्द्र देखा का जन्म मौर चतुर्थ स्वप्न में उन्होंने मुख में प्रवेश करता हुमा श्वेत सिंह देखा। प्रातः काल जागने पर उन्होंने अपने पति से स्वप्नों का वर्णन करते हुए उनका फल पूछा । स्वप्न सुनकर वसुदेव
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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