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पंचविंशतितम परिच्छेद
भगवान नेमिनाथ
पश्चिम विदेह क्षेत्र में सोतोदा नदी के उत्तर तट पर सुगन्धिला नामक देश था। उस देश में सिंहपुर नगर का स्वामी ग्रहंदास था। उसकी महारानी का नाम जिनदत्ता था। राज-दम्पति श्रानन्दपूर्वक राज्य-सुखों का भोग
पूर्व भव
कर रहे थे । एक बार ग्रष्टान्हिका पर्व में भगवान जिनेन्द्र की महा पूजा कराई। पूजा के पश्चात् महारानी ने मन में यह इच्छा की कि मैं कुलगौरव पुत्र प्राप्त करूँ । उसी रात्रि को महारानी स्वप्न में सिह, हाथी, सूर्य, चन्द्रमा और लक्ष्मी का अभिषेक देखा । स्वप्न देखने के बाद हो महारानी के गर्भ में पुण्यात्मा जीव अवतीर्ण हुआ । नो माह व्यतीत होने पर रानी ने श्रति बलवान पुत्र को जन्म दिया । पुत्र के जन्म के बाद उसके पुण्य प्रताप से राजा श्रहंदास को कोई शत्रु पराजित नहीं कर सका । इसलिये पुत्र का नाम सोच समझकर अपराजित रक्खा गया । बालक अत्यन्त रूपवान और बलवान था । गुणों के साथ बढ़ता हुआ वह योवन अवस्था को प्राप्त हुआ । एक दिन राजोद्यान में विमलवाहन तीर्थंकर पधारे। राजा परिजनों और पुरजनों के साथ उनके दर्शनों के लिये गया। राजा ने वहाँ जाकर भगवान के दर्शन करके तीन प्रदक्षिणाएं दीं, भ्रष्ट द्रव्य से पूजन की और यथास्थान बैठकर उनका दिव्य उपदेश सुना । उपदेश सुनकर उसके मन में भोगों से निर्वेद हो गया । वहाँ से लौट कर उसने पुत्र अपराजित का राज्याभिषेक करके पांच सौ राजानों के साथ संयम ग्रहण कर लिया।
अपराजित ने भी अणुव्रत धारण कर लिये । यद्यपि वह राज्य शासन करता था, किन्तु उसका मन धर्म में रंगा हुआ था। एक दिन उसे समाचार मिला कि भगवान विमलवाहन और पिता मुनि ग्रहास गन्धमादन पर्वत से | मुक्त होगये । समाचार सुनते ही उसने प्रतिज्ञा की कि जब तक मैं भगवान विमलवान के दर्शन नहीं कर लूँगा, तब तक भोजन नहीं करूँगा। मंत्रियों और परिवार के लोगों ने समझाया कि भगवान मुक्त होचुके हैं, उनके दर्शन किस प्रकार संभव हैं ऐसी असंभव प्रतिज्ञा करने से क्या लाभ है । किन्तु राजा ने किसी की बात नहीं सुनी, वह श्रपनी प्रतिज्ञा पर टल रहा। इस प्रकार उसे निराहार रहते हुए आठ दिन बीत गये । तब सौधर्म इन्द्र की प्रशा से कुबेर ने भगवान विमलनाथ का दिव्य रूप बनाकर राजा को दर्शन कराये। राजा ने गद्गद होकर भक्तिभाव से उनका पूजन किया, तब भोजन किया ।
एक दिन राजा अपराजित ग्रष्टान्हिका पर्व में पूजन करने के पश्चात् बैठा हुआ था। तभी आकाश से दो चारण ऋद्धिधारी मुनि श्राकाश मार्ग से बिहार करते हुए वहाँ पधारे। राजा ने उठकर बड़ी विनयपूर्वक उनकी पादवन्दना की, उनका धर्मोपदेश सुना । तदनन्तर राजा हाथ जोड़कर बोला- ' पूज्य ! मैंने आपको कहीं पहले भी देखा है।'
ज्येष्ठ मुनि कहने लगे- 'राजन् ! तुम यथार्थं कह रहे हो। तुमने हम दोनों को बेला है । किन्तु इस जन्म - में नहीं, पूर्व जन्म में देखा है ।' राजा को यह सुनकर बड़ा विस्मय हुआ। वह पूछने लगा- 'प्रभु ! कहाँ देखा है, यह
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