SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 259
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भी आंसू श्रा गये । विद्याधर और भूमिगोचरी राजा मिलकर राम के निकट श्राये । युद्ध बन्द हुआ | सब लोग परस्पर गले मिले । अपने पुत्रों का माहात्म्य देखकर सोता पुण्डरीकपुर लौट गई। भामण्डल की रानियाँ भी सीता के साथ गई । युद्ध समाप्त हो जाने के बाद भामण्डल, सुग्रीव, विभीषण, नल, नील, अंग, अंगद हनुमान तथा अन्य विद्याधर सीता को देखने पुण्डरीकपुर गये । सबने सीता को प्रणाम किया, सीता ने उन्हें आशीर्वाद दिया। फिर सब लोग अयोध्या वापिस मा गये । पुत्रों के समागम की खुशी में अयोध्यावासियों ने बड़ा हर्ष मनाया । नगरं खूब राजाया गया। रामचन्द्र जी दोनों पुत्रों के साथ हाथी पर बैठकर नगर में आये । स्त्रियों ने कुमारों की आरती उतारो | राम लक्ष्मण ने बाजंघ का खूब सत्कार किया। *** एक दिन विभीषण, हनुमान आदि विद्याधरों ने हाथ जोड़कर रामचन्द्र जी से निवेदन किया— प्रभो ! सीता पुण्डरीकपुर में जाने कैसे अपना समय व्यतीत करती होगी। मगर अपि भ्राज्ञा दें तो उन्हें जाकर ले आयें।' यह सुनकर रामचन्द्र जी आंखों में बांसू भर कर बोले- 'मैं जानता हूँ कि सीता निर्दोष है । परन्तु उसे ले थाने से लोग फिर अपवाद करेंगे। अगर सीता अग्नि में प्रवेश करके अपनी निर्दोषता की परीक्षा दे तो मैं उसे रख सकता हूँ।' 'अच्छा' कहकर विद्याधर लोग पुण्डरीकपुर पहुँचे और सीता से जन समुदाय के सामने अपनी निर्दोषता प्रमाणित करने की प्रार्थना की। सीता ने कहा- मैं अब संसार के सुखों में पुनः प्रवेश नहीं करना चाहती । यदि मेरे भाग्य में सुख ही होते तो ये दुःख ही क्यों आते। जब मुझे कलंक लग चुका तो क्या लेकर उन्हें अपना मुह दिखाऊँ।' विभीषण बोला- 'दुःख करने से क्या लाभ है । जो कुछ होता है, सब अपने भाग्य से होता है। अतः आप ऐसा कीजिये कि सब लोगों पर आपका विश्वास जम जाय। ऐसा करने से आपकी भी कीर्ति होगी।' सीता ने प्रपनी निर्दोषता प्रमाणित करना स्वीकार किया और प्रसन्नता से विमान में बैठ गई । सीता जी की श्रग्नि परीक्षा सीता अयोध्या बाई । वह महेन्द्र उद्यान में ठहराई गई। देश-विदेश के लोगों को निमन्त्रण-पत्रिका भेजी गई। देश विदेश के लोग श्राकर एकत्रित होने लगे। ग्रामचन्द्र जी महल के समीप ही एक मंच पर बैठ गये। राजा लोग भी यथास्थान बैठ गये । आज्ञा पाकर विद्याधर लोग सीता को हाथी पर बैठाकर सभा मण्डप में ले आये | सीता को आते देखकर लोग हर्षित हो उठे। जब सीता निकट आ गई तो राजा गण खड़े हो गये। लक्ष्मण, शत्रुघ्न आदि ने उनके पैर छए । सीता राम के निकट प्राई । रामचन्द्र जी की उदासीनता देखकर सीता मन में अत्यन्त व्याकुल हुई किन्तु फिर उनके पैर छू कर सामने खड़ी हो गई और लज्जा से निगाह नीची करके पैर के अंगूठे से जमीन कुरेदने लगी। उसे ख्याल आने लगा कि मैं यहाँ क्यों श्रई । इतने में रामचन्द्र जी बोले- 'सीता ! सामने से दूर हो। यहाँ क्यों आई। छह महीने तू रावण के यहाँ रही है । अब किस मुंह से मैं तुझे अपने यहाँ रखूं । मैं जानता हूँ कि तू निर्दोष है। परन्तु जब तक लोग तुझे निर्दोष न मान लें, तब तक मेरे यहाँ तुम्हारी गुंजायश नहीं है।' यह सुनकर सीता ने कहा- मुझे सब स्वीकार है। अपनी निर्दोषता प्रमाणित करने के लिये प्राप कहें तो मैं सांप के मुंह में अपना हाथ दे दूं, आप कहें तो हलाहल विष पीलू, म्राप कहें तो तपे हुए लोहे के गोले हाथ ले लूं, आप कहें तो आग में कूद पड़ें। आप जो कुछ कहें, वह सब मैं करने को तैयार हूँ । राम क्षण भर सोचकर बोले- 'आग में प्रवेश कर अग्नि परीक्षा दो ।' यह सुनकर नारद सोचने लगे अग्नि का क्या विश्वास न जाने क्या अनर्थ हो जाय । विभीषण हनुमान आदि भी इस प्राज्ञा से व्याकुल हो गये । लक्ष्मण, शत्रुध्न, लवण और कुश भी बड़े दुःखी हुए । क्षुल्लक सिद्धार्थ ने खड़े होकर कहा - 'महाराज! मैं विद्या के बल से सर्वत्र चैत्यालयों को बदना के लिये जाता रहता हूँ। मैंने मुनियों के मुख से भी सब जगह सीता के सतीत्व की प्रशंसा सुनी है । अतः भाप सीता को अग्नि प्रवेश की श्राज्ञा मत दीजिये ।' विद्याधर और भूमिगोचरी लोग भी एक स्वर से कहने लगे - 'प्रभो ! सीता सती है, वह निर्दोष है, उन्हें अग्नि प्रवेश की प्राशा मत दीजिये । राम क्रुद्ध होकर बोले- इतनी दया अब दिखा रहे हो तो पहले सीता का अपवाद क्यों किया था।' में राम की आज्ञा से फौरन दो पुरुष गहरा और तीन सौ हाथ लम्बा चौड़ा गड्ढा खोदा गया और सूखे ईंधन से भरकर अग्नि प्रज्वलित की गई। प्रसंख्य जनता सीता की अग्नि परीक्षा देखने वहाँ एकत्रित हो गई ।
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy