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________________ ४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास कर दूंगा।' यह सुनकर सीता बड़ी प्रसन्न हुई 1 क्षुल्लक वहीं एकान्त स्थान में रहने लगे और बालकों को पढ़ाने लगे। थोड़े ही समय में दोनों बालक शस्त्र विद्या और शास्त्रविद्या में निपुण हो गये। ___ अब वे हाथी पर सवार होकर नगर में क्रीड़ा करते घूमते थे। वनजंघ ने बड़े पुत्र अनंगलवण के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया। अब उसे दूसरे पुत्र के विवाह को चिन्ता हुई। तब उसने पृथ्वीपुर के राजा पृथु के पास उनकी कन्या कनकावली को अपने दूसरे पुत्र के लिए मांगने के लिए अपने मंत्री को भेजा । किन्तु राजा पृथ् ने बड़ा कटु उत्तर दिया कि जिसके कुल गोत्र का ठिकाना नहीं, उसके लिये मैं अपनी पुत्री को कैसे दे सकता वनजंघ ने जब मंत्री से पृथ का यह अभद्रतापूर्ण उत्तर सूना तो उसे बड़ा क्रोध प्राया। वह सेना लेकर पृथ का मान-मर्दन करने चल दिया । मार्ग में वंशपुर का राजा व्याघ्ररथ जो पृथु के पक्ष का था--युद्ध करने पाया। उसे पराजित कर बनजंघ ने पृथ्वीपुरको घेर लिया। रमा पृयु ने अपने मिः पोरनपुर के राजा को बुलाया। वह सेना लेकर मैदान में प्राडटा । दोनों ओर से भीषण संग्राम हुमा किन्तु दोनों की सम्मिलित शक्ति के मुकाबले वचघ ठहर नहीं सका। तब उसने दोनों कुमारों को बुला भजा 1 दोनों पुत्र और बनजंघ के पुत्र फौरन युद्धस्थल में पाये । दोनों कुमारों ने थोड़ी ही देर में पृथु को पकड़ लिया। साथ ही पोदनपुर के राजा को भी उसके रथ में ही धर दबाया और उसे पकड़ लिया। दोनों राजकुमारों को प्रणाम कर प्यु बोला-ग्राप दोनों भाई उच्च कुलीन और ज्ञानवान हैं 1 मैंने अज्ञानता में जो अपराध किया, उसे पाप क्षमा कर द।' इस तरह विनयपूर्वक निवेदन करके उसने अपनी पुत्री कनकमाला का विवाह मदनांकुश के साथ कर दिया। कुमारों ने दोनों राजाओं को बंधन मुक्त कर दिया और एक महीने पृथ्वीपुर में ठहर कर दिग्विजय करने निकले । उनके साथ राजा पृथ, पोदनपुर को शाजा और वचनंघ भी चले । वे लोकाक्ष, मालवा, अवन्ति, तिलिंग आदि दक्षिण देशों को जीतते हए कैलाश पर्वत की मोर पूर्व दिशा में गये । उधर के अनेक राजामों को जीतते हुए पश्चिम के राजाओं को जीता । पश्चात विजया के समीप सिन्धु के किनारे के राजाओं को जीना । इस तरह तमाम पृथ्वी को जीतते हुए वे अपने नगर को लोट आये । प्रजा ने कुमारों का खूब स्वागत किया। बजजय के साथ कुमार राजद्वार पर पहुंचे। रानियों ने तीनों की प्रारती उतारी। सीता भाई से मिली मोर कुमारों ने सीता के पैर छुए। सीता ने दोनों को प्राशीर्वाद दिया। एक दिन देवर्षि नारद अयोध्या गये । नारद ने वहाँ सीता को न देखकर राम से पूछा- 'यहाँ सीता कहीं दिखाई नहीं देती।' नारद का प्रश्न सुनकर कृतान्तवक्त्र ने सारा समाचार सुनाया । उसे सुनकर नारद को बड़ा दुःख हमा और वे सीता को खोजने चल दिये । घूमते हुए वे पुण्डरीकपुर पहुँचे मोर वनजंघ की प्राज्ञा लेकर अन्तःपर में गये। सीता ने उन्हें प्रणाम किया और बैठने को उच्च आसन दिया। नारद सीता को देखकर बड़े प्रसन्न हए। नारद ने सीता से कुशल समाचार पूछे तो सीता ने प्रापबीती सारी घटना कह सुनाई । इतने में वहीं पर दोनों कभार आ गये और नारद के पैर छूकर खड़े हो गये। नारद ने उन्हें माशीर्वाद दिया-'राम-लक्ष्मण के समान तुम्हारे भी खूब विभूति हो।' कुमारों ने नारद से पूछा--'ये राम-लक्ष्मण कोन हैं।' नारद बोले- क्या तुमने नारायण और बलभद्र लक्ष्मण राम का नाम नहीं सुना जिन्होंने सीता को हरने वाले महा बलवान रावण को मारा है और जो तीन खण्ड के अधिपति बन कर अयोध्या में शासन कर रहे हैं। उन्हीं में से बलभद्र के तुम दोनों पुत्र हो।' तब कुमारों ने सीता से पूछा कि नारद जी जो कुछ कह रहे हैं, क्या वह सत्य है ? तब सीता ने सब पाप बीती सुना दी। माता का वृत्तान्त सुनकर दोनों पुत्र क्रुद्ध होकर राम लक्ष्मण को मारने के लिए तैयार हुए। नारद जी ने मना किया तो लवणांक श तेजी में बोला-लोगों के कहने में प्राकर पिता ने क्यों हमारी माँ को छोड़ दिया। क्या उस समय अयोध्या में न्याय की बात कहने वाला कोई नहीं था कि एक स्त्री को भयानक वन में अकेली क्यों छोडा जाता है। अगर मामा ने माँ को न रखा होता तो अब तक माँ को शेर चीते खा जाते। माप बताइये, अयोध्या यहाँ से कितनी दूर है। हम भी तो देखें, पिता कितने पानी में हैं ।' नारद ने कहा-'अयोध्या यहाँ से एक सौ साठ योजन है।' लवणांकुश ने मामा से कहा- हम राम लक्ष्मण पर चढ़ाई करेंगे, पाप सेना सजवाइये।' सीता ने पुत्रों से मना किया-बेटा! तुम राम लक्ष्मण के साथ लड़ाई मत ठानो। ये बड़े बलवान हैं। उन्होंने तीन खण्ड के अधिपति और अनेक विद्याओं के स्वामी रावण को भी मार दिया।' लवांकुश बोला-'मां! हम लोग रावण की तरह
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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