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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास चलते समय अपशकुन हुए। नदी, पर्वतादिकों को लांघता हुआ रथ यात्रा कराता हुआ प्रागे बढ़ा और मिहाटबी में पहुँचा। सिंह व्याघ्रादि से भरे हुए उस वन में सेनापति ने रथ रोक दिया। सेनापति कुछ कहना ही चाहता था कि उसकी आँखों से अश्रुधारा बह निकलो। सीता ने पूछा-भाई ! हम लोग तीर्थयात्रा को निकले हैं। एसे हर्षपूर्ण प्रसंग में तुम्हारे दु:ख का अभिप्राय मैं नहीं समझी ।' सेनापति ने कहा--'माता! बड़े पाप के फल से कुत्ते के समान यह दास का जीवन मिलता है । दास बड़े पाप के फल से नरकों में जाता है और वहां से निकल कर चाण्डालादि योनियों में जन्म लेता है।" सीता बोली-'वत्स ! तुम ऐसा क्यों कहते हो ?' सेनापति ने कहा-'माता! महाराज रामचन्द्र जी की है कि में नन्हें बड़ी भा छोकलनका कहना है कि यद्यपि सीता निदोष है, फिर भी लोकापवाद के कारण मैं उसे रखने को तैयार नहीं है। किन्तु तुम्हें एकाकी इस वन में किस प्रकार छोड़ें । और यदि नहीं छोड़ता हूँ तो महाराज रामचन्द्र नाराज होंगे । मेरे रोने का यही कारण है।' सेनापति के वचन सुनते ही सीता को मच्छी मा गई । जब उसे होश आया तो बोली-हे वीर एक बार अयोध्या ले चलो। रामचन्द्र जी के चरणों के दर्शन करके और उनसे अपने मन की बात कह कर मैं पूनः वन में चलो पाऊंगी। किन्तु सेनापति बोला-'देवि ! इस समय रामचन्द्र जी क्रोध और कठोरता की मूर्ति हो रहे हैं। अतः उनके दर्शन करना भी बेकार है।' सीता ने कहा- 'हे सेनापति ! तुम मेरे वचन राम से कहना कि मेरे त्याग का विषाद पाप न करना, परम धैर्य धारण कर प्रजा की रक्षा करना, जैसे पिता पुत्र की रक्षा करता है। राजा को प्रजा ही आनन्द का कारण है। आप मुक्ति के कारण सम्यग्दर्शन की पाराधना करना और राज्य से सम्यग्दर्शन को श्रेष्ठ मानना । अभव्य जनों की निन्दा के भय से सम्यग्दर्शन को मत छोड़ना । आप सब शास्त्रों के शाता हो, अतः मैं प्रापको कोई उपदेश देने में समर्थ नहीं हूँ। यदि मैंने कभी परिहास में अविनयपूर्ण वचन कहे हों तो पाप क्षमा करना।' इस प्रकार कहकर रथ से उतर कर वह मूर्छा खाकर पृथ्वी पर गिर पड़ी, मानो रत्नों की राशि ही पड़ी हो। कृतान्त वक्त्र सीता को चेष्टारहित मूछित देख कर बड़ा दुखो हुप्रा और मन में विचारने लगा-धिकार है इस पराधीनता को, जिसके कारण मुझे महासती सीता को निर्दय जीवों से भरे हुए इस वन में अकेला छोड़कर जाना पड़ रहा है। पराधीन जीवन बड़े पाप का फल है । स्वामी की आज्ञा के अनुसार ही चलना सेवक का एकमात्र काम है। यह पराधीनता कभी किसी को प्राप्त न हो।' यों सोचकर अत्यन्त दुखी और लज्जित होता हुमा यह बहाँ पर ही सीता को अकेली छोड़कर अयोध्या को चल दिया। इधर सीता को जब होश आया तो वह विलाप करने लगी---'प्रार्य पुत्र ! पाप सब की रक्षा करते थे, किन्तु मेरे लिए इतने कठोर कैसे बन गये। देवर लक्ष्मण ! भाई भामण्डल ! तुम मुझे कैसे भूल गये। भरत ! शत्रुघ्न ! तुम्ही पाकर मुझे इस वन में ढाढस बंधायो । क्या तुम सबने मुझे छोड़ दिया। विद्याधरो ! तुम मेरी रक्षा करने को लंका गये थे, अब तुम मेरी रक्षा क्यों नहीं करते । इस प्रकार बिलाप करके यह बार-बार मंछित होने लगी। सीता का विलाप सुनकर जंगल के पशु भी स्तब्ध रह गये । सीता पुन: मन को सान्त्वना देने लगोइसमें राम या किसी अन्य का क्या दोष है । मैंने जो शुभाशुभ कर्म किये हैं, उनका फल म भोगना ही होगा। शायद मैंने किसी जन्म में मुनि-निन्दा की हो, सतियों को दोष लगाया हो या कोई ऐसा ही पाप किया हो। इस प्रकार सीता कभी विलाप करती, कभी प्रात्म निन्दा करती हई हिरणी की भांति इधर उधर फिरने लगी। ___ सीता करुण क्रन्दन करती हुई वन में फिर रही थी तभी पुण्डरीकपुर का हरिवंशी राजा बनजंघ सेना सहित हाथी पकड़ने इसी जंगल में प्रा निकला । हाथी पकड़कर लौटते हुए उसने सीता का बिलाप सुना । यह शीघ्र सीता के पास आया । सेना को देखकर सीता और भी भयभीत होकर विलाप करने लगी। वन देवी की तरह सीता को बैठी देखकर सेना कौतुक से और भी समीप प्राई। सीता उरकर उन्हें अपने गहने देने लगी। तब वजष हाथी से उत्तर कर सीता के समीप आया और बोला-पुत्री ! तू इस वन में अकेली क्यों है । तेरे पिता, पति और श्वसुर कौन हैं ? सीता ने रोते हुए कहा-'भाई ! मैं दशरथ की पुत्र वधू, और जनक को पुत्री हूँ। रामचन्द्र मेरे पति हैं। और भामण्डल मेरा भाई है। भरत को राज्य सौंपकर मेरे पति वन को गये थे। उनके साथ मैं भी गई
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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