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________________ २३८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास कृतान्तवक्त्र सेनापति युद्ध के लिए प्राया। दोनों में घोर युद्ध हुा । कृतान्तवक्त्र ने उसकी छाती पर गदा का प्रहार किया, जिससे वह तत्काल मर गया। पुत्र को मृत जानकर मधु स्वयं युद्ध के लिए पाया। कृतान्तवक्त्र पीछे हटने लगा। यह देख शत्रुघ्न मैदान में कूद पड़ा। दोनों में घोर युद्ध हुआ। अन्त में मधु मारा गया । शत्रुघ्न ने उसका राजसी ठाठ से दाह संस्कार कराया। स्वामी के न रहने पर त्रिशूलरत्न को देव उठा कर ले गये और गरुण इन्द्र को दे दिया । इन्द्र ने पूछाइसे तुम क्यों ले पाए । तब देवों ने कहा-शत्रुघ्न ने मधु का वध कर दिया है।' यह सुनकर गरुणेन्द्र शत्रुघ्न को मारने माया । पोर जब उसने मथुरा की प्रजा को मधु की मृत्यु पर खुशियाँ मनाते देखा तो वह और भी कुछ हो गया और उसने मथुरा में मरी रोग फैला दिया। प्रजा धड़ाधड़ मरने लगी। शत्रुघ्न प्रजा के इस विनाश से दुखी होकर अयोध्या चला गया। एक बार नागपुर के राजा श्रीनन्दन के सुरमन्यु, श्रीमन्यु, श्रीनिलय, सर्वसुन्दर, जय, विनय, लालस और जयमित्र ये सात पुत्र मुनि हो गये और तपस्या करके उन्हें ऋद्धि प्राप्त हो गई। वे विहार करते हुए मथुरा पधारे मौर एक बड़ के नीचे चातुर्मास किया । चारण ऋद्धि के कारण वे चार अंगुल जमीन से ऊपर चलकर दूसरे नगरों में प्राहार कर शाम को मथुरा वापिस पा जाते थे। मथरा की सारी प्रजा नगर से भाग गई थी। उन ऋषियों के तप के प्रभाव से धीरे-धीरे मरी रोग शान्त हो गया और प्रजा पुनः नगर में आ गई। शत्रुघ्न भी मथुरा से लौट पाया। तब शवघ्न ने सप्तर्षियों से निवेदन किया-'प्रभो! आप इसी नगर में विराजें, जिससे पुनः मरी रोग न हो।' मुनि बाले–'तुम यहाँ जिनालयों का निर्माण कराम्रो, उनकी प्रतिष्ठा करो। उससे पुनः मरी रोग का भय नहीं रहेगा। शत्रुघ्न ने महर्षियों की प्राज्ञा से अनेक जिनमंदिर बनवाये। तबसे मथरा में खब प्रानन्द मंगल होने लगे और प्रजा सुख से रहने लगी। मब राम-लक्ष्मण ने त्रिखण्ड बिजय के लिए प्रयाण किया । जो राजा स्वेच्छा से उपहार लेकर माये, उन्हें आदर-सत्कार करके सन्तुष्ट किया। किन्तु जिन्होंने उनकी आधीनता स्वीकार नहीं की, जनको दण्डित किया। इस प्रकार अल्पकाल में ही भरत क्षेत्र के तीन खण्डों के समस्त राजाभों को, विद्याधरों और सीता का भूमिगोचरों को जीतकर नारायण लक्ष्मण त्रिखण्डाधिपति बन गये। उनके सोलह हजार परित्याग । रानियां थीं जिनमें प्राठ मुख्य थीं-विशल्या, रूपवती, बनमाला, कल्याणमाला, रतिमाला, जितपद्मा, भगवती और मनोरमा। राम की रानियों में मुख्य चार पटरानी थीं-सीता, प्रभावती, रतिप्रभा, पौर श्रीदामा। अंब राम-लक्ष्मण मानन्दपूर्वक तीनों खण्डों पर शासन कर रहे थे । सोलह हजार मुकुटबद्ध राजा उनकी सेवा में रहते थे। धर्म, अर्थ, काम तीनों पुरुषार्थ उनके अनुकूल थे। एक बार सीता अपने महलों में सो रही थी। उसने रात्रि के पिछले प्रहर में दो सुन्दर स्वप्न देखे। वह शय्या से उठ कर राम के पास गई पौर निवेदन कियानाय ! मैंने आज रात्रि के अन्तिम प्रहर में दो स्वप्न देखे हैं। एक में तो दो पूर्ण चन्द्र देखे हैं। उसके बाद दो सिंह मह में प्रवेश करते देखे हैं। इन दोनों स्वप्नों का फल प्राप बतावें। राम बोले—'देवि ! तुम्हारे सिंह के समान दो पराक्रमी पुत्र उत्पन्न होंगे। वे दोनों ही भोगी, त्यागी और मोक्ष मार्ग के प्रवर्तक होंगे मार अन्त में कर्म शत्रुषों को नष्ट कर मोक्ष प्राप्त करेंगे।' सीता स्वप्नों का फल सुनकर बड़ी प्रसन्न हुई और अपने महल स्वप्न वाले दिन पुष्पोत्तर विमान से चलकर दो देव सीता के गर्भ में पाए। धीरे-धीरे गर्भ बढ़ने लगा। उससे सीता कृश हो गई, मुह पीला पड़ गया। स्तनों का अग्न भाग, काला पड़ गया। सीता की ऐसी हालत देख कर राम ने कहा- 'तुम्हें जो दोहला हो, वह कहो, मैं उसे पूरा करूंगा।' सीता ने कहा—'नाथ ! मैं सब जगह जाकर भगवान की प्रतिमामों का पूजन करना चाहती हूँ।' राम सीता को लेकर मंदिरों में गये और आनन्दपूर्वक पूजा की। पूजा करते समय सीता की दाई प्रांख फड़की। सीता यह देखकर किसी प्रनिष्ट की पाशंका से चिन्तित हो गई । विन शांति के लिए उसने यथेच्छ दान दिया और महलों को लौट पाई। रामचन्द्र जी वहीं प्रासाद मण्डप में अनेक लोगों के साथ बैठे रहे। तभी द्वारपाल ने प्राकर निवेदन
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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