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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास १० के लरकाना जिले में सिन्धु नदी तथा नरनहर के मध्य में मोहन-जो-दड़ो स्थित है। मोहन-जो-दड़ो का अर्थ है मृतकों का टीला । यहाँ पर जल को स्पर्श करती हुई सात तहों तक खुदाई हुई थी। हड़प्पा मोण्टगोमरी जिले में एक स्थान है। मोहन-जो-दड़ो सिन्धु नदी के कांठे में तथा हड़प्पा रावी के कांठे में अवस्थित है । इन दोनों स्थानों में जिस संस्कृति की खोज हुई, वह सिन्धु घाटी की सभ्यता अथवा हड़प्पा संस्कृति कही जा सकती है । भारत सरकार के पुरातत्त्व विभाग के डायरेक्टर सर जान मार्शल ने इस सभ्यता के सम्बन्ध में लिखा है- 'पांच हजार वर्ष पूर्व पंजाब और सिन्धु प्रदेश में आर्यों से भी पहले ऐसे लोग रहते थे, जिनकी संस्कृति बहुत उच्च कोटि की थी और अपने समकालीन मेसोपोटामिया तथा मिश्र की संस्कृति से किसी बात में भी कम न थी । हां, कई बातें उत्कृष्ट अवश्य कही जा सकती हैं ।' इन स्थानों पर जो पुरातत्त्व उपलब्ध हुआ है, उससे तत्कालीन भारतवासियों के रहन-सहन, पहनावपोशाक, रीति-रिवाज, और धार्मिक विश्वासों पर प्रकाश पड़ता है। इन स्थानों पर यद्यपि कोई देवालय मंदिर नहीं मिले हैं, किन्तु वहां पाई गई मुहरों ( Seals ), ताम्रपत्रों, धातुमिट्टी तथा पत्थर की मूर्तियों से उनके धर्म और विश्वास का पता चलता है । मोहन जोदड़ो में कुछ मुहरें ऐसी मिली हैं, जिन पर योग मुद्रा में योगी-मूर्तियाँ अंकित हैं। एक मुहर ऐसी भी प्राप्त हुई है, जिसमें एक योगी कायोत्सर्ग मुद्रा . ( खड्गासन ) में ध्यान लीन है। उसके सिर के ऊपर त्रिशूल है। वृक्ष का एक पत्ता मुख के पास है। योगी के चरणों में एक भक्त करबद्ध नमस्कार कर रहा है। उस भक्त के पीछे वृषभ खड़ा है। वृषभ के ऊपर वृक्ष है। योगी को वेष्टित किये हुए वल्लरी है। नीचे सामने की ओर सात योगी उसी कायोत्सर्ग मुद्रा में भुजा लटकाये ध्यान मग्न हैं । प्रत्येक के मुख के पास वल्लरी के पत्र लटक रहे हैं । योगी के इस परिवेश और परिकर को भादि तीर्थंकर वृषभदेव के परिप्रेक्ष्य में जैन शास्त्रों के विवरण से तुलना करें तो अत्यन्त समानता के दर्शन होते हैं मोर कुछ रोचक तथ्य उभर कर सामने आते हैं । आचार्य जिनसेन ने 'आदि पुराण' सर्ग १८ लोक ३,६ और १० में भगवान की कायोत्सर्ग मुद्रा का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है । इलोक १० में आचार्य लिखते हैं- 'उनकी दोनों बड़ी बड़ी भुजाऐं नीचे की ओर लटक रही थीं। और उनका शरीर अत्यन्त देदीप्यमान तथा ऊंचा था। इसलिए वे ऐसे जान पड़ते थे मानो अग्रभाग में स्थित दो ऊंची शाखाओं से सुशोभित एक कल्पवृक्ष ही हो ।' इसी सर्ग के श्लोक १२ में वर्णन है--' मन्द मन्द वायु से समीपवर्ती वृक्षों की शाखाओं के अग्रभाग हिल रहे थे । आदि पुराण सर्ग १७ श्लोक २५३ में वर्णन - 'जो भगवान के चरणों की पूजा कर चुके हैं, जिनके दोनों घुटने पृथ्वी पर लगे हुए हैं और जिनके नेत्रों से हर्ष के प्रांसु निकल रहे हैं, ऐसे सम्राट् भरत ने अपने उत्कृष्ट मुकुट में लगे हुए मणियों की किरण रूप स्वच्छ जल के समूह से भगवान के चरण-कमलों का प्रक्षालन करते हुए भक्ति से नम्र हुए अपने मस्तक से उन भगवान के चरणों को नमस्कार किया। आदि पुराण सर्ग १७ श्लोक २१८ - जिनका संयम प्रगट नहीं हुआ है, ऐसे उन द्रव्यलगी मुनियों से घिरे हुए भगवान वृषभ देव ऐसे सुशोभित होते थे मानो छोटे-छोटे कल्प वृक्षों से घिरा हुआ कोई उन्नत विशाल कल्पवृक्ष ही हो ।' मिलता है। मोहन-जो-दड़ो में सम्बन्धी ध्यान विवरण को पढ़ें इसी प्रकार का वर्णन महाकवि अर्हद्दास विरचित 'पुरुदेव घम्पू' में भी प्राप्त मुहर को सामने रखकर प्रादिपुराण मौर पुरुदेव चम्पू के भगवान वृषभदेव तो दोनों में ऐसी समानता मिलेगी, मानो इन पुराणकारों ने उक्त मुहर की ही व्याख्या की हो। इसलिये उक्त मुहर मौर उक्त पौराणिक विवरण से तुलना करके मुहर की व्याख्या इस प्रकार कर सकते हैं— भगवान वृषभदेव कायोत्सर्गीसन से ध्यानारूढ खड़े हैं। कल्प वृक्ष हवा से हिल रहा है और उसका एक 'पल्लव भगवान के मुख के पास डोल रहा है । उनके सिर पर सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान- सम्यक् चारित्र यह त्रिरत्न रूप त्रिशूल है। सम्राट् भरत भगवान के चरणों में भक्ति से झुक कर मानन्दायों से उनके चरण प्रक्षालन कर रहे हैं।
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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