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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
का स्मरण कर व्याकुल हो रहे हैं। तब हनुमान अपनी विद्या से वृक्ष पर रूप बदल कर जा बैठे धौर राम को दी हुई गूठी सीता की गोद में डाल दी। अंगूठी राम नामाङ्कित थी। अंगूठी को देख कर सोता बड़ी हर्षित हुई, मानो साक्षात् राम के ही दर्शन हो गये हों। सीता को प्रसन्न देखकर विद्यावरियों ने जाकर रावण करे समाचार दिया । रावण ने समझा- मेरा कार्य सिद्ध हो गया। उसने उन विद्याधरियों को खूब पुरस्कार दिया मौर मन्दोदरी से कहा -- तुम अन्य रानियों के साथ जाकर सीता को प्रसन्न करो।' मन्दोदरी अन्य रानियों को लेकर सीता के पास पहुँची और उससे कहा- 'तुम्हें प्रसन्न देखकर हमें भी प्रसन्नता है । अब तुम संसार विजयी रायण के साथ आनन्द के साथ भोग करो ।' सीता सुनकर बड़ी कुपित होकर बोली- विद्याघरी ! मुझे मेरे पति के समाचार मिल गये हैं इसलिये में प्रसन्न हूँ । अब यदि मेरे पति ने यह सब सुन लिया तो रावण जीवित नहीं बचेगा ।' फिर सोता कहने लगी -- 'यहाँ ऐसा मेरा कौन भाई है, जिसने लाकर मुझे राम को अँगूठी दी है ।'
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हनुमान यह सुनकर वृक्ष से नीचे उतरे मौर उन विद्याधरियों के समक्ष ही सीता के सामने जा पहुँचे और चरणों में नमस्कार कर कहा- 'माता ! रामचन्द्र जी को यह अंगूठी मैं लाया हूँ ।' सीता द्वारा परिचय पूछने पर हनुमान ने अपना परिचय देते हुए कहा- रामचन्द्र जी आपके वियोग में बड़े दुखी है, न खाते हैं, न सोते हैं । दिन-रात मापका ही ध्यान करते रहते हैं।' अपने पति के समाचार पा कर सोता बड़ी प्रसन्न हुई । फिर वह कहने लगी- 'हाय ! मैं पापिनी तुझे इस समय इस खुशी के समाचारों के बदले कुछ भी नहीं दे सकती ।' हनुमान बोला-, माता! आपके दर्शनों से ही मेरा पुण्य-वृक्ष फल गया ।' तब सीता बार-बार राम-लक्ष्मण की कुशलता के समाचार पूछने लगी मौर कहने लगी- 'हनुमान । सच कहना, कहीं उनकी अंगुली से गिर जाने के कारण यह अंगूठी तुम उठा तो नहीं लाये । वे इस समय कहाँ हैं । लक्ष्मण खरदूषण से युद्ध करने गये थे। उनके वियोग में कहीं राम ने प्राण तो नहीं त्याग दिये ।' तब हनुमान ने कहा- ' माता वे इस समय किष्किंधापुर में हैं। बहुत से विद्याधर उनके साथ हैं । उन्होंने ही मुझे प्रापके पास भेजा है ।'
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तब मन्दोदरी हनुमान से बोली- 'अरे कृतघ्न ! अब रावण की सेवा छोड़कर विद्यावर होकर भी तूने भूमि गोरियों की सेवा अंगीकार करली है । अब तेरी कृतघ्नता का फूल तुझे शीघ्र मिलेगा ! रावण राम-लक्ष्मण सहित तुझे भी शीघ्र मार डालेंगे।' तब हनुमान ने उसे करारा उत्तर देते हुए कहा- 'भूमिगोचरौ तो तीर्थंकर भी होते हैं । तू राम-लक्ष्मण के पराक्रम को नहीं जानती। इसीलिए तू पटरानी होकर यह दूती का निय कार्य कर रही है | तू देखेगी कि राम-लक्ष्मण के हाथों तेरा पति रावण अब शीघ्र ही मारा जायगा ।' तब मन्दोदरी मादि सीता को मारने झपटी किन्तु हनुमान की एक ही भाग गई । तब हनुमान ने सीता से कहा- 'माता ! माप भोजन कर लीजिये विभीषण की रानियों ने भी सीता से भोजन करने का बहुत आग्रह किया। भोजन किया। हनुमान ने फिर निवेदन किया- 'माता ! आप मेरे कन्धे पर बैठ जाइये। मैं अभी प्रापको रामचन्द्र जी के पास पहुँचाये देता हूँ ।' किन्तु सीता ने कहा- 'बिना प्रभु रामचन्द्र जी की माझा के मैं वहाँ नहीं जा सकती । दुनियाँ मेरा अपवाद करेगी । तू विश्वास के लिए यह चूड़ामणि रत्न लेजा और प्रभु से कहन्प्र - सीता पापके दर्शनों की लालसा से ही प्राण धारण किये हुए है।' इस प्रकार कह कर सीता ने हनुमान से शीघ्र चले जाने को कहा । सीता की माशानुसार हनुमान वहाँ से चल दिया। रानियों ने जाकर रावण से शिकायत की। रावण ने नौकरों को भाशा दी कि जाकर विद्याधर को पकड़ लाभो । नौकरों को आते देखकर हनुमान ने विद्या से बानर का रूप रख लिया मोर एक वृक्ष की शाखा में छिप गया। जब हनुमान को कहीं नहीं देखा तो ये इधर-उधर ढूंढने लगे । तब हनुमान ने वृक्ष उखाड़ उखाड़ उन्हें मारना शुरू कर दिया। उसने उस उद्यान को तहस-नहस कर दिया । घुड़शालायें नष्ट कर दीं, गजशालाओं में आग लगा दी। अनेक लोगों को मार डाला। तब कुछ लोगों ने जाकर रावण से फरयाद की महाराज ! कोई भारी देत्य माया है। उसने अनेक घर ढा दिये, वृक्ष उखाड़ फेंके, अनेक लोगों को मार डाला यह सुनकर रावण ने अपने पुत्र मेघनाद से कहा- पुत्र ! तू जा, देख तो यह कौन पापी माया है ।
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हुंकार से वे भयभीत होकर वहाँ से
रामचन्द्र जी ने यह माज्ञा दी है । बड़ी कठिनाई से सीता ने थोड़ा सा