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________________ जैन रामायण आकर उदास क्यों है। जिमे रावण जैसा बली त्रिखण्डाधिपति पति प्राप्त हो रहा हो, उसे शोक करना उचित नहीं है । तेरे राम-लक्ष्मण रावण की तुलना में अति तुच्छ हैं । यदि नू महाराज रावण की बात स्वीकार नहीं करेगी तो रावण कुपित होकर क्षणभर में राम और लक्ष्मण को मार डालगे। यदि तूने समझ से काम लिया तोतु पटरानी बनकर जीवन का आनन्द उठावेगी।' यह सुनकर अश्रुपूरित नयनों से मन्दोदरी को देखती हुई सीता बोली- 'माता! सतियों के मुख से ऐसे बचन नहीं निकलने चाहिये । मेरा शरीर टुकड़े-टुकड़े कर दिया जाय, तब भी में राम को छोड़ अन्य पुरुष की इच्छा नही कर सकती। पर-पुरुष चाहे इन्द्र चक्रवर्ती हो क्यों न हो।' इधर ये बातें हो हो रही थी कि काम से व्याकूल रावण बहाँ पाया और मुस्कराता हआ सीता को समझाने लगा । किन्तु सीता ने फटकारते हुए करारा उत्तर दिया । तब रावण ने क्रोधित होकर विद्याबल मे वहाँ घोर अधकार कर दिया। नाना प्रकार के फुकारते हुए विषषर और भयानक जन्तु सीता को डराने के लिये भेजे। किन्तु सोता राम के ध्यान में निमग्न रही, वह भयभीत नहीं हई। तब रावण यहाँ पर ही पर्दा डालकर मंत्रियों से मंत्रणा करने लगा । वहाँ सीता के सदन के शब्द विभीषण के कानों में पड़े। वह पर्दा उठाकर सीता के पास पहुंचा और पूछने लगा--'बहिन !तु किसकी पुत्री है और यहाँ बैठी क्यों रुदन कर रही है।' तब सीता ने उत्तर दिया-'भाई ! मैं मिथिलापति जनक को पुत्री और अयोध्यापति दशरथ की पुत्र-वध हैं। वन में जब मेरे पति राम और देवर लक्ष्मण युद्ध को गये थे तो मुझे अकेलो पाकर पापी रावण मुझे हर लाया है । यतः ग्राप मुझे यहाँ से छुड़ाकर मेरे पति राम के पास पहुँचाने का कोई उपाय करो।' सीता के मुख से ये वचन सुनकर विभीषण को बड़ा क्रोध पाया। वह रावण के पास माकर कहने लगा-'देव ! आप ज्ञानवान हैं, फिर भी प्रापने परस्त्री हरण जैसा अपवादकारी निद्य पाप क्यों किया? माप यह तो जानते ही हैं कि परस्त्री समागम से कुल की अपकीति और नाश हो जाता है। अत: प्राप दया करके सीता को उसके पति के पास पहुँचा दें।' किन्त यह सूनकर निर्लज्ज रावण बड़ी घुष्टता से बोला--त्रिखण्ड में जितनी भी सून्दर वस्तुयें हैं, सब मेरी हैं। यह कहकर वह मारीच मादि से बात करने लगा। तब मारीच कहने लमा-नाथ ! राजाओं को सदा न्याय-मार्ग पर चलना चाहिये। लोकनिंद्य काम करने से वंश का नाश हो जाता है। रावण को मारीच का उपदेश रुचिकर नहीं लगा और वह वहां से उठकर चल दिया। उसने अपना सारा वैभव सीता के आगे से निकाला, जिससे सीता प्रभावित हो किन्तु सीता पर इसका कुछ प्रभाव नहीं पड़ा । वह तो सदा राम के ही चरणों का ध्यान करती थी। उसने मन में संकल्प कर लिया कि जब तक पुनः पति से समागम न होगा तब तक अन्न-जल ग्रहण नहीं करूगी। रावण ने सीता को अपना पार पाकापत करने का स्त्रियां सीता के पास रख दी, जो रत्न, मुक्तक आदि के अनेक आभषण और शृगार की सामग्री सीता के पास लाकर रखसी, उसे प्रेमभरो रसीली बातें सुनाती, कोई उसे भयभीत करती, किन्तु सीता उनको न कुछ उत्तर देती पौर नही बोलती। वे जाकर रावण को रिपोर्ट देती कि सीता पर हमारी बातों का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता। रावण काम विमूढ हुमा सीता का ही दिनरात ध्यान करता। तब एक दिन विभीषण ने मंत्रि-परिषद बुलाई और कहने लगा-'देखो, रावण सीता को ले पाया है। इससे बड़ा अनर्थ होगा। न्याय मार्ग पर चलने वाले हनुमान प्रादि राजा विरुद्ध हो जायेंगे । रावण का दाहिना हाथ खरदूषण मारा ही गया है। राम की सहायता पाकर विराधित बलवान हो गया है। बानरवंशी प्रपनी हो समस्याओं में उलझे हुए हैं। भगवान के मुख से माप लोग सुन ही चुके हैं कि दशरथ के पुत्रों के हाथ से रावण की मृत्यु होगी। प्रतः माप लोग कुछ उपाय करें कि यह अनर्थ टल सके।' तब मंत्रियों ने निश्चय किया कि लंका को सुरक्षा का पूर्ण प्रबन्ध करना चाहिये । प्रभावशाली पुरुषों को मधुर वाक्यों से अपने पक्ष में कर लेना चाहिये और दुष्ट जनों को धनादि से परितृप्त कर अपने अनुकूल करना चाहिये। रावण का जिसमें हित हो, हमें वही कार्य
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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