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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
लक्ष्मण अतिवीर्य को लेकर रामचन्द्र जी के पास आये । रामचन्द्र जी बोले- भरत सारे भारत के राजा हैं। तुम उनकी आधीनता स्वीकार करो और धानन्दपूर्वक रहो ।' यों कह कर उसके बन्धन खुलवा दिये । प्रतिवीर्य बोला - - "मुझेः अब भोगों की इच्छा नहीं है। मैं तो अब जिन दीक्षा लेकर ग्रात्म कल्याण करूंगा ।' यों कहकर वह मुनि बन गया । रामचन्द्र जी ने इसके पुत्र विजयरथ का राज तिलक कर दिया। विजयरथ ने अपनी बहन का विवाह लक्ष्मण के साथ कर दिया और भरत के साथ सन्धि कर ली। रामचन्द्रजी पृथ्वीवर के साथ विजयपुर लौट आये ।
कुछ दिन वहाँ ठहरकर जब वे लोग वहाँ से चलने लगे तो लक्ष्मण वनमाला से विदा लेने पहुँचे और बोले- 'प्रिये ! तुम यहीं रहना। कुछ दिन बाद में तुम्हें लिवा ले जाऊँगा ।' किन्तु वनमाला बोली- 'नाथ ! मैं भी आपके साथ चलूंगी।' तब लक्ष्मण बोले- 'हे शुभे ! यदि मैं तुम्हें लेने न भाऊँ तो मुझे वह दोष लगे, जो रात्रि भोजन करने से या कन्दमुल खाने से अथवा अनछना जल पीने ने लगता है ।' तब वनमाला आश्वस्त हो गई और वे तीनों वहाँ से चुपचाप चल दिये ।
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वहाँ से चलकर वे क्षेमांजलि नगर के बाहर उद्यान में ठहरे। राम की श्राज्ञा से लक्ष्मण कहर देखने गये और वहाँ के राजा की पुत्री जितपद्मा की प्रतिज्ञानुसार लक्ष्मण ने राजदरबार में जाकर देवाधिष्ठित पांच शक्तियों को भेला तथा रामचन्द्रजी की प्राज्ञा से जितपद्मा के साथ विवाह किया ।
के वहाँ कुछ दिन ठहर कर एक दिन चुपचाप दक्षिण समुद्र की ओर चल दिये । चलते-चलते वे वंशस्थल नगर पहुँचे । वहाँ के लोगों को भयभीत देखकर रामचन्द्रजी ने इसका कारण पूछा तो एक व्यक्ति ने बताया कि 'रात में इस पर्वत के ऊपर कुछ दिनों से विजली गिरने जैसा भयानक शब्द होता है चोर भूतप्रेतादिकों की डरावनी प्राकृतियां दिखाई देती हैं। रात को सब लोग बाहर भाग जाते हैं और सुबह फिर नगर में आ जाते हैं।' यह सुनकर रात को रामचन्द्र जी लक्ष्मण मीर सीतो के साथ पर्वत पर पहुंचे। वहाँ जाकर क्या देखते हैं कि देशभूषण मोर कुलभूषण नामक दो मुनि तपस्या कर रहे हैं और उनके सारे शरीर पर सांप-बिच्छू आदि लगे हैं। सबने उन्हें नमस्कार किया और अपने धनुषों से सांप-बिच्छुओं को हटाया । मुनियों के चरण धोये और उनकी पूजा की ।
कुछ देर बाद एक असुर ने उन मुनियों को नाना भांति के कष्ट देने प्रारम्भ किये। वह नाना प्रकार के डरावने रूप बनाकर भयानक आवाज करने लगा। सीता इससे डर गई । तब रामचन्द्र जी ने सीता को तो मुनि चरणों में बैठा दिया और दोनों भाई धनुष चढ़ा कर टंकारने लगे । मसुर भयभीत होकर वहाँ से भाग गया ।" उपसर्ग दूर हो गया । उसी समय दोनों मुनियों को केवलज्ञान हो गया । चतुर्निकाय के देव भगवान का केवलज्ञान महोत्सव मनाने आये । भगवान का उपदेश हुआ । सबने उपदेश सुनकर आत्म कल्याण किया 1
तभी मरुणेन्द्र वहाँ आया और प्रसन्न होकर रामचन्द्रजी से बोला- 'तुमने दोनों मुनियों की जो सेवा की है, इससे में बहुत प्रसन्न हूँ । तुम जो चाहो सो मांग लो।' रामचन्द्रजी बोले- 'जब आवश्यकता होगी, हम आप को स्मरण करेंगे । थाप उस समय हमारी सहायता करना । गरुणेन्द्र ने 'तथास्तु' कहा । वंशपुर के राजा ने राम सीता और लक्ष्मण का बड़ा कर विशाल जिन मन्दिर बनवाये और उनकी प्रतिष्ठा करा
राम का जटायु से मिलन
सम्मान किया। रामचन्द्रजी ने वहाँ कुछ दिन ठहर दी तब से उस पर्वत का नाम रामगिरि हो गया । वहाँ से वे चल दिये और वन के बीच बहने वाली कर्णरवा नदी के तट पर पहुँचे। सीता ने वहाँ भोजन बनाया । लक्ष्मण वन में बनहस्ती के साथ क्रीड़ा करते हुए कुछ दूर निकल गये। तभी सीता ने सुगुप्ति और गुप्ति नामक दो मुनियों को बाते देखा। उसने रामचन्द्रजी को बताया। फौरन रामचन्द्रजी और सीता ने दोनों मुनियों को पड़गाया और विधिपूर्वक उनको आहार कराया । आहार होने पर देवों ने पंचाश्चर्य किये। मुनि श्राहार के पश्चात् वहीं शिला पर बैठ गये। मुनियों को देखकर उस समय एक गृद्ध पक्षी को जाति-स्मरण ज्ञान (पूर्व जन्म का ज्ञात) हो गया । यह भक्ति से प्रेरित होकर मुनियों के चरणों में गिर पड़ा और चरणोदक में लोट-लोट कर स्तुति करने लगा । चरणोदक के प्रभाव से उसका शरीर स्वर्ण जैसा हो गया, बाल रेशम जैसे हो गये। पंख वंड्यं मणि के समान हो गये और पंजे पद्मराग मणि जैसे हो गये ।