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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास इन्द्र से अनेक मंत्रों' द्वारा उनके घन और गायों को दिलाने की प्रार्थना की गई है। इससे ज्ञात होता है कि कीकट देश में व्रात्यों का शासन था और व्रात्यों की राजनैतिक और संनिक शक्ति वैदिक आर्यों से श्रेष्ठ थी। ५ किन्तु धीरे धीरे जब वैदिक आर्य व्रात्यों के निकट सम्पर्क में आये और उनकी श्रात्म-साधना, उन्नत श्रध्यात्मिक ज्ञान एवं उच्च मान्यतायें देखीं तो वे उनसे बड़े प्रभावित हुए और उन्होंने यज्ञों के विरोधी व्रात्यों की प्रशंसा में अनेक मंत्रों की रचना की । व्रात्यों की यह प्रशंसा ॠग्वेद काल से लेकर अथर्ववेद काल तक प्राप्त होती है । प्रथर्ववेद में तो स्वतंत्र व्रात्य सूक्त की रचना भी मिलती है । 1 इसी व्रात्य सूक्त में एक मंत्र द्वारा व्रात्य की परिभाषा इस प्रकार की गई है 'जो देहधारी श्रात्मायें हैं, जिन्होंने अपनी आत्मा को देह से ढंका है, इस प्रकार के जीव समूह समस्त प्राणधारी चैतन्य सृष्टि के स्वामी हैं, वे व्रात्य कहलाते हैं ।' एक मंत्र में व्रात्य के निन्दकों की भर्त्सना करते हुए कहा है 'जो ऐसे व्रात्य की निन्दा करता है, वह संसार के देवताओं का अपराधी होता है ।' कर्मकाण्ड को ही धर्म मानने वाले ब्राह्मणों की अपेक्षा साधारण व्रात्य को श्रेष्ठ बताते हुए एक मंत्र में कहा गया है 'यद्यपि सभी व्रात्य प्रादर्श पर इतने ऊंचे चढ़ हुए न हों, किन्तु व्रात्य स्पष्टतः परम विद्वान्, महाधिकारी, पुण्यशील, विश्वबंध, कर्मकाण्ड को धर्म मानने वाले ब्राह्मणों से विशिष्ट महापुरुष होते हैं, यह मानना ही होगा।' वैदिक ऋषि व्रात्यों के उच्च नैतिक मूल्यों से प्रत्यधिक प्रभावित थे । उन्होंने वेदों की ऋचाओं द्वारा याशिकों को यहां तक आदेश दिया कि- 'यज्ञ के समय व्रात्य श्रजाय तो याज्ञिक को चाहिये कि व्रात्य की इच्छानुसार यज्ञ को करे अथवा उसे बन्द करदे | जैसा व्रात्य यज्ञ - विधान करे, वैसा करे । I 'विद्वान् ब्राह्मण ब्रात्य से इतना ही कहे कि जैसा आपको प्रिय है, वही किया जायगा । वह व्रात्य मात्मा है । आत्मा का स्वरूप है । श्रात्म साक्षात् दृष्टा महाव्रत के पालक व्रात्य के लिये नमस्कार हो ।' इस प्रकार संहिता काल में व्रात्यों के प्रति अत्यन्त सम्मान के भाव प्रगट किये गये हैं। इसमें सन्देह नहीं है कि व्रात्य शब्द का प्रयोग श्रमण के अर्थ में ही प्रयुक्त हुन । ये श्रमण और व्रात्य ही परवर्ती काल में जैन कहलाने लगे । इतिहासकार यह स्वीकार करते हैं कि संहिताओं का निर्माण-काल भारतीय संस्कृति का स्वर्णिम काल था । उस समय भारत में जन्मी श्रमण संस्कृति और भारत की मिट्टी में पनपी वैदिक संस्कृति मुक्त और उदार भाव से परस्पर लेन-देन कर रही थीं। भारत की स्वस्थ जलवायु में एक नई संस्कृति जन्म ले रही थी । भौतिक दृष्टि वाली वैदिक संस्कृति श्रमण संस्कृति के आध्यात्मिक मूल्यों पर मुग्ध हो रही थी। उस काल में वैदिक ऋषियों ने श्रमण अथवा व्रात्यों के प्रति अपनी श्रद्धा प्रगट की और तभी उन्होंने वात्य सूक्त, ऋषभ सूक्त तथा स्वतन्त्र मंत्रों द्वारा महाव्रात्य ऋषभदेव, महाव्रत पालक बात्य श्रमसाधु और सामान्य व्रात्य श्रमण परम्परा के अनुयायी जनों की स्तुति और प्रशंसा की । किन्तु लगता है, ब्राह्मण साहित्य, स्मृति और पुराण- काल विशेषतः विष्णुपुराण के रचना काल में माकर वैदिक ऋषियों के ये भाव स्थिर नहीं रह सके और वे व्रात्यों की निन्दा करने लगे । संभवतः इसका कारण यह रहा हो कि व्रात्यों की प्राध्यात्मिक धारा से प्रभावित होकर वैदिक कर्मकाण्डमूलक विचारधारा अपने मूल रूप को छोड़कर औपनिषदिक ज्ञान काण्ड की ओर मुड़ने लगी थी। ऐसी स्थिति में अपने मूल रूप को स्थिर रखने के लिये वैदिक १. ऋग्वेद १०३३५ ११०१०१ ११३०१८, ७ १०४/२, ३३०।१७ २. प्रथववेद काण्ड १५ में २२० मंत्रों द्वारा व्रात्यों की स्तुति की गई है। ३. प्रथववेद काण्ड १५. ४. ऋग्वेद २।३३।१५, ४।६।२६।४ प्रथमं वेद १६ । ४२ ।४
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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