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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास करूंगा। यह अभिमान की बात नहीं थी, बल्कि यह तो उसके धर्म का एक अनिवार्य अंग था। अतः वह रावण के राज्य दरबार में नहीं जाता था। क्योंकि यहाँ जाने पर रावण को नमस्कार करना पड़ता, न करता तो व्यर्थ में युद्ध होता । रावण ने समझा कि बाली मुझसे विमुख हो गया है। प्रतः उसने बाली के पास दूत भेजा। दूत ने पाकर । बाली से कहा--मेरे स्वामी रावण ने आपसे कहलवाया है कि हमने तुम्हारे पिता सूर्यरज को यम से छुड़ाकर किष्किघा का राज्य दिया था। तबसे हम दोनों में प्रेम चला पा रहा है। किन्तु तुम मुझसे विमुख हो गये हो। मत: तुम पाकर मुझे नमस्कार करो और अपनी बहन श्रीप्रभा का विवाह मेरे साथ कर दो, जिससे हमारा प्रेम बना रहे, अन्यथा तुम युद्ध के लिए तैयार हो जानो। बाली ने द्रत की बात स्वीकार नहीं की और युद्ध के लिए तैयार हो गया। किन्तु मंत्रियों ने उसे समझाया -'महाराज! व्यर्थ युद्ध करके क्यों हिंसा का पाप मोल लेते हो और फिर रावण बड़ा बलवान है । वह अर्धचक्री है। उससे जीत पाना कठिन है।' किन्तु बाली बोला-'मैं रावण को चूर-चूर कर सकता हूँ।' फिर उसने सोचावास्तव में इस क्षणभंगुर राज्य के लिए युद्ध करना बुद्धिमानी नहीं है। और यों सोचकर वह राजपाट छोड़कर दिगम्बर मुनि हो गया और वनों में जाकर तपस्या करने लगा। रावण को अब दूत ने पाकर सब समाचार बताये तो वह कुब हो उठा और चतुरंगिणी सेना सजाकर बाली का मानमर्दन करने किष्किधापुर मा पहुँचा। सुग्रीव ने-जो बाली के पश्चात् राजा हो गया था-रावण की प्रगवानी की और अपनी बहन श्रीप्रभा का विवाह रावण के साथ कर दिया तथा उसकी अनुमति से राज्य करने लगा। एक बार रावण पुष्पक विमान में निस्यालोकपुर से लौटता हा लंका जा रहा था कि उसका विमान एकाएक रुक गया। तब उसने मारी से कहा- देखो तो, मेरा विमान किने शेक लिया है। मारीच ने नीचे जा. कर देखा कि एक तपस्वी मनिराज कैलाश पर्वत पर तपस्या कर रहे हैं। उन्हीं के प्रभाव से विमान रुक गया है। उसने यह बात रावण से जाकर कही। रावण मुनिराज के दर्शन करने नीचे उतरा किन्तु वहाँ बाली मूनि को तपस्या करते हुए देखकर उसका पुराना क्रोष उमड़ पड़ा और बोला-'अरे मुनि ! तूने प्रब भी वैर नहीं छोड़ा जो मेरा विमान रोक लिया है । मैं तुझे अभी इसका दण्ड देता है। यों कहकर बह विद्या के बल से पर्वत के नीचे घुस गया और पर्वत को उठाने लगा। पर्वत पर रहने वाले पशु भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगे । वृक्ष टूट-टूट कर गिरने लगे। देवपूजित जिन मन्दिर हिल उठे। तब मुनिराज ने अवधिज्ञान से बाना कि यह कुकृत्य दशानन का है। उसके इस कृत्य से भरत चक्रवर्ती द्वारा निर्मित विशाल.मन्दिर भी नष्ट हो जायेंगे। मैं पुण्योपार्जन के कारणभूत इन मन्दिरों की रक्षा करूंगा। यों सोचकर बाली मुनिराज ने पर अंगूठे से पर्वत को दबाया। उसके भार से दशानन पिचने लगा। उसके सारे अंग पीड़ा से सिकुड़ गये। वह भयानक पीड़ा के कारण इतना जोर से रोने लगा कि जगत में सबसे उसका नाम रावण विख्यात हो गया। उसके रोने का शब्द सुनकर उसकी रानियां पाई और मुनिराज के चरणों में गिरकर पति की प्राण-भिक्षा मांगने लगीं। सब मुनिराज ने दया करके अपना पंगूठा ढीला कर दिया। देवों ने पंचाश्चयं की वर्षा की। रावण को भी युति मा गई और वह बाली के चरणों में गिर कर स्तुति करने ल क्षमा मांगने लगा। इस काण से लज्जित होकर रावण निकटस्वामय में गया पौर भगवान की पूजा करने लगा। वह भगवान की भक्ति में इतना बेसुध हो गया कि अपनी धानों से उसने मांतें निकाली और उन्हें वीणा की तरह बजाकर भगवान की स्तुति पढ़ने लगा । रानियाँ नृत्य करने लगीं। उसकी भक्ति से प्रभावित होकर नागकुमार देवों का इन्द्र धरणेन्द्र वहाँ पाया और बोला-'म तेरी भक्ति से बड़ा प्रसन्न हूँ। तू कोई वर मांग।' रावण बोला-'नागेन्द्र ! भगवान की भक्ति से बढ़कर और क्या चीज तुम्हारे पास है जो मैं मागं ।' किन्तु धरणेन्द्र ने कहा-'मेरे दर्शन निष्फल न हो अतः मैं तुम्हें यह शक्ति देता हूँ। इससे देव और वानव तक पराजित हो जाते हैं। यों कहकर उसने रावण को शक्ति प्रदान की। रावण एक महीने तक कैलाश पर्वत पर रहा । उसने अपने कृत्य का वहाँ रहकर प्रायश्चित्त किया और फिर लंका को लौट गया।
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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