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भगवान मुनिसुवातनाव
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आकाश में धनघोर घटा छाई हुई यो। तभी उनकी गजशाला के अधिपति ने यह समाचार पीक्षा कल्याणक दिया कि प्रसिद्ध यागहस्ती ने आहार छोड़ दिया है। समाचार सुनकर भगवान चिन्तन में लोन
हो गये । किन्तु उपस्थित सभासदों को इस समाचार से बड़ा कुतूहल हुआ। उन्होंने भगवान से इसका कारण जानना चाहा। भगवान बोले-पूर्व भव में यह हाथी तालपुर नगर का स्वामो नरपति नाम का राजा था। यह बड़ा अभिमानी था। यह पात्र-रात्र का भेद नहीं जानता था । इसने किमिच्छक दान दिया। इस कुदान के प्रभाव से इसे तिर्यच योनि प्राप्त हूंई ओर यह हाथी बना।
जब भगवान सभासदों को हाथो का पूर्वभव सुना रहे थे, उस समय हाथी वहाँ खड़ा हुआ यह हन रहा था। सुनकर उसे जाति स्मरण शान हो गया। उसने उसी समय संयमासंयम धारण कर लिया अर्थात श्रावक के व्रत धारण कर लिए। भगवान के मन में भी संसार से वैराग्य हो गया। उसी समय लोकान्तिक देवों ने प्राकर भगवान की वन्दना की पौर भगवान के विचारों की सराहना की। उन्होंने अपने पुत्र युवराज विजय को राज्य सौंप दिया। तभी देवों ने प्राकर भगवान का दीक्षाभिषेक किया । फिर वे मनुष्यों और देवतामों से उठाई हई अपराजिता नामक पालकी में बैठकर विपुल नामक उद्यान में पहुंचे। वहाँ दो दिन के उपवास का नियम लेकर वैशाख कृष्णा दशमी के दिन श्रवण नक्षत्र में सायंकाल के समय एक हजार राजानों के साथ समस्त सावध से विरत होकर और सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करके जिन-दीक्षा धारण करली। भगवान ने जो केशलचन किया था, उन बालों को रनमंजूषा में रखकर सौधर्म इन्द्र ने क्षीरसागर में प्रवाहित कर दिया। दीक्षा ते ही संयम और भाव-विशुद्धि के प्रभाव से भगवान का मनःपयंय ज्ञान उत्पन्न हो गया। दीक्षा लेकर वे ध्यानमग्न होगये। उपवास समाप्त होने पर थे पारणा के लिए राजगृह नगर में पधारे और वहाँ दृषभदत्त राजा ने परमान्न भोजन से पारणा कराया। यद्यपि भगवान समभाव से तृप्त थे, उन्हें आहार को कोई पावश्यकता नहीं थी। किन्तु जिनशासन में पाचार को वृत्ति किस तरह है, यह बतलाने के लिए ही उन्होंने आहार ग्रहण किया था । पाहार दान के प्रभाव से राजा वृषभदत्त देवकृत पंचातिशयों को प्राप्त हुमा ।
इस प्रकार तपश्चरण करते हुए छद्मस्य अवस्था के जब ग्यारह माह व्यतीत हो गये, तब वे दोक्षा-वन में पहंचे और एक चम्पक वृक्ष के नीचे स्थित होकर दो दिन के उपवास का नियम लिया । शुक्ल ध्यान में विराजमान
भगवान को दीक्षा लेने के मास, पक्ष, नक्षत्र और तिथि में अर्थात वैशाख कृष्णा नवमी के दिन केबलहान कल्याणक श्रवण नक्षत्र में सन्ध्या के समय घातिया कर्मों का क्षय करके केवलशान उत्पन्न हो गया। वे
सर्वश-सर्वदर्शी हो गये। तभी इन्द्रों पोर देवों ने पाकर भगवान के केवलमान कल्याणक का उत्सब किया और समवसरण को रचना की। उसमें विराजमान होकर भगवान ने गणधरों, दे तिर्यञ्चों को सागार प्रौर मनगार धर्म का उपदेश दिया, जिसे सुनकर अनेकों ने संयम धारण किया, बहुतों ने श्रावक के प्रत प्रहण किये गौर बहुत से भव्य प्राणियों ने सम्यग्दर्शन धारण किया. अनेकों ने सम्यग्दर्शन में निर्मलता प्राप्त की।
भगवान के संघ में मल्लि पादिपठारह गणधर थे जो अपने अपने गणों की धर्म-रक्षा करते थे। ५०० द्वादशांग के देसा, २१००० शिक्षक, १५००अवधिज्ञानो, 1000 केवलमानी, २२०० विक्रिया ऋविषारी, १५००
मनःपर्ययज्ञानी और १२००बादी मुनि थे। इस प्रकार सब मिलाकर ३००००मुनिराज उनके भगवानका विष साथ थे। पुष्पदन्ता मादि ५०००० प्रणिकायें पौ। १००००० श्रावक पीर ३०००००
संघ श्राविकायें थीं। उनके भक्त संख्यात तिर्यञ्च पौर प्रख्यात देव थे।
धर्म-देशना देते हुए भगवान मुनि-संघ के साथ विभिन्न देशों में विहार करते रहे । जब उनकी प्रायु एक मास घोष रह गई, तब वे सम्मेद शिखर पर पहुंचे और एक हजार मुनियों के साथ प्रतिमा योग धारण कर योग
निरोध कर लिया और फाल्गुन कृष्णा द्वादशी के दिन रात्रि के पन्तिम पहर में समस्त निर्वाण कल्याणक घातिया कर्मों का क्षय करके निर्वाण प्राप्त किया, वे सिद्ध मुक्त हो गये।
उसी समय देवों और इन्द्रों ने पाकर भगवान के निर्वाण कल्याणक की पूजा की। यक्ष-यक्षिणी---भगवान के सेवक वरुण यक्ष और बहरूपिणी यक्षिणी थे।