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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास अन्त में समाधिमरण करके वह माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुमा। जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत के पूर्व की ओर वीतशोकपुरी नामक नगरी थी। उसमें नरवृषभ नामक राजा राज्य करता था। उसने निर्विघ्न राज्य-सुख भोगा । अन्त में विरक्त होकर दमवर मुनिराज के पास दीक्षा ले ली। उसने कठोर तपस्या की और आयु पूर्ण होने पर वह सहस्रार स्वर्ग में देव हुआ। बसभव, नारायण और प्रतिनारायण-खगपुर नगर में इक्ष्वाकुवंशी राजा सिंहसेन शासन करता था। उसकी बड़ी रानी विजया के गर्भ में सहसा र स्वर्ग के उस देव का जीव प्रवतीर्ण हमा। उसका जन्म होने पर सुदर्शन नाम रक्खा गया। छोटी रानी अम्बिका के गर्भ में माहेन्द्र स्वर्ग का देव पाया और उत्पन्न होने पर उसका नाम पुरुषसिंह रवखा गया। दोनों क्रमश: गौर और कृष्ण वर्ण के थे। दोनों में प्रति स्नेह था और दोनों अविभक्त राज्य का प्रानन्दपूर्वक भोग करते थे। उन्होंने अपने बाहुबल से अनेक शत्रुओं को पराजित किया था। हस्तिनापुर नगर का स्वामी मधुकीड़ बड़ा प्रतापी और अभिमानी नरेश था। उसने कुछ ही काल में भरत क्षेत्र के तीन खण्डों पर अपना प्राधिपत्य जमा लिया था। उसे सुदर्शन प्रौर पुरुषसिह दोनों भाइयों का बढ़ता हुआ प्रभाव और तेज महन नहीं हुआ । उसने अपने प्रधान मन्त्री दण्डगर्भ को उनके पास भेजा और कर स्वरूप अनेक श्रेष्ठ रत्न मांगे । सुनकर दोनों भाई अत्यन्त कुद्ध हो गये। उन्होंने मंत्री को उत्तर दिया-उस मूर्ख में कह देना, हम उसका कर युद्ध-स्थल में चलकर चुकावेंगे। जब मन्त्री से मधुक्रीड़ ने ये समाचार सुने तो सुनते ही उसकी आँखें क्रोष के कारण रक्तवर्ण हो गई। वह विशाल सेना लेकर युद्ध के लिये चल दिया। दोनों भाई भी सेना सजाकर रणभूमि में पहुँचे । दोनों सेनायें परस्पर भिड़ गईं। लाशों से मैदान पट गया। पुरुषसिंह मधुक्रीड पर झपटा । प्रम दोनों वीरों का युद्ध होने लगा। दोनों एक-दूसरे के शस्त्रों पर प्रहारों को काटते रहे। मधुकीड को अनुभव हुमा कि पाज जिस शत्रु से पाला पड़ा है, वह साधारण नहीं है । उसका वध करना ही अपनी सुरक्षा का एकमात्र उपाय है। ऐसा विचार करके उसने अपने शत्रु पर भीषण वेग से चक्र फेंका। किन्तु पुरुषसिंह चक्र को देखकर तनिक भी भयभीत नहीं हुमा । चक्र भी उसके समीप पहुंच कर प्रौर प्रदक्षिणा देकर उसकी भुजा पर जा टिका। मधुकीड का पुण्य क्षीण हो चुका था। अन्त समय में उसी के चक्र ने उसे धोखा दिया। पुरुषसिंह ने उसी चक्र को मधुक्रीड पर पला दिया, जिससे उसका सिर कटकर भूलु ठित हो गया । नारायण के हाथ प्रतिनारायण मारा गया। दोनों भाई तीन खण्ड पृथ्वी के अभीश्वर बन गये, सम्पूर्ण राजाओं ने पाकर उनके चरणों में नमस्कार किया। उन्होंने बहुत समय तक राज्यलक्ष्मी का भोग किया। एक दिन नारायण की मत्यू हो गई। अनुज के वियोग में बलभद्र को बड़ा शोक हमा। उसे किसी प्रकार भी कहीं पर शान्ति नहीं मिली। तब वह भगवान धर्मनाथ की शरण में पहुंचा। उनका उपदेश सूनकर उसने दीक्षा ले ली और घोर तप करके उसने सम्पूर्ण कर्मों का नाश करके अक्षय पद मोक्ष प्राप्त किया। ये पाँचवें बलभद्र, नारायण और प्रतिनारायण थे। ये तीनों भगवान धर्मनाथ के समय में हुए थे। मघवा चक्रवर्ती भगवान धर्मनाथ के तीर्थ में मधवा नामक तीसरा चक्रवर्ती हुआ। पूर्व भव-वासुपूज्य भगवान के तीर्थ में नरपति नामक एक बड़ा राजा था। उसने अनेक शत्रुओं को जीत फर अपने राज्य की सीमायें बहुत विस्तृत कर ली । वह बहुत काल तक सूस्तपूर्वक राज्य करता रहा। जब उसे भोगों से अरुचि हो गई तो वह मूनि बनकर ग्रात्म-कल्याण का पथिक बन गया। उसने घोर तप किया। अन्त में समाधि मरण करके मध्यम अवेयक में अहमिन्द्र हमा।
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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