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________________ भगवान श्रेयान्सनाव धीरे धीरे श्रेयान्स कुमार बढ़ने लगे । जब उनका कुमार काल व्यतीत हो गया और उन्होंने यौवन में पदार्पण किया, पिता ने अपना राज्य पुत्र को सोंप दिया। अब श्रेयान्सनाथ ने राज्य-भार दीक्षा कल्याणक संभाल लिया। उन्हें पूर्व पुण्य से सब प्रकार के भोग प्राप्त थे । प्रजा उनके पुण्य-प्रभाव और सुशासन से खूब सन्तुष्ट थी और निरन्तर समृद्धि की ओर बढ़ रही थी । उनका शासन कल्याणकारी था। एक दिन वसन्त ऋतु का परिवर्तन देखकर उनके मन में विचार प्रस्फुटित हुना-काल बड़ा बलवान है, ऐसा कहा जाता है। किन्तु काल भी छिन छिन में श्लोज रहा है। जब काल ही अस्थिर है, तब संसार में स्थिर क्या है ? केवल शुद्ध स्वरूप प्रात्मा के गुण ही अविनश्वर हैं । जब तक शुद्ध आत्मस्वरुप की प्राप्ति न हो जाय, तब तक निश्चिन्त नहीं हो सकता, भगवान यह विचार कर रहे थे, तभी सारस्वत प्रादि लौकान्तिक देवों ने पाकर उनकी स्तुति को और उनके वैराग्य की सराहना की। भगवान ने अपने पुत्र श्रेयस्कर को राज्य सौप दिया और देवों द्वारा जलाई गई विमलप्रभा नामक पालको में प्रारूढ़ होकर नगर के बाह्य अंचल में स्थित मनोहर उद्यान में पहुँचे। वहां पहुंच कर दो दिन के लिये पाहार का त्याग कर फाल्गुन कृष्णा एकादशी को प्रात:काल के समय श्रवण नक्षत्र में एक हजार राजामों के साथ संयम धारण कर लिया। उसी समय उन्हें मनःपर्ययज्ञान प्रगट हो गया। उन्होंने पारणा के लिये सिद्धार्थ नगर में प्रवेश किया। वहाँ नन्द राजा ने भगवान को भक्तिपूर्वक याहार दिया । देवों ने पंचाश्चर्य किये। भगवान श्रेयान्सनाथ ने तप करते हुए दो वर्ष विभिन्न स्थानों पर बिहार करते हए विताये। वे फिर बिहार करते हुए अपने दीक्षा-बन में पधारे। वहाँ दो दिन के उपवास का नियम लेकर वे तुम्बुर वृक्ष के नीचे रूढ हो गये। वहीं पर उन्हें माघ कृष्णा अमावस्या के दिन श्रवण नक्षत्र में सायंकाल के समय केवलज्ञान कल्याणक केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। देवों और इन्द्रों ने आकर केवलज्ञान कल्याणक उत्सव मनाया। ___इन्द्र की प्राज्ञा से कुबेर ने समवसरण की रचना को । उसमें देव, मनुष्य और तियंचों के पुण्य योग से भगवान की प्रथम दिव्यध्वनि खिरी। इस प्रकार उन्होंने धर्मचक्र प्रवर्तन किया। भगवान के कुन्थु आदि सतत्तर गणधर थे। १३०० पूर्वधर, ४८२०० शिक्षक, ६००० अवधिज्ञानी, ६५०० केवलज्ञानी, ११००० बिक्रिया ऋद्धिधारी, ६००० मनःपर्ययज्ञानी और ५००० वादी भगवान का परिवार मुनि थे। इस प्रकार कुल मिलाकर ८४००० मुनि थे। इनके अतिरिक्त धारणा प्रादि १२०००० अजिंकाय थीं। २००००० श्रावक और ५००... श्राविकाय थीं।। केवलज्ञान के पश्चात भगवान विभिन्न देशों में बिहार करके भव्य जीवों को उपदेश देते रहे। जब प्रायू निर्वाण कल्याणक कर्म का अन्त होने में एक माह शेष रह गया, तब वे सम्मेदशिखर पहँचे । वहाँ एक माह तक योग निरोध कर एक हजार मुनियों के साथ श्रावण शुक्ला पूर्णमासी के दिन सायंकाल के समय धनिष्ठा नक्षत्र में प्रघातिया कर्मों का क्षय करके मुक्त हो गये। देवों ने पाकर घूमधाम से उनका निर्वाण कल्याणक मनाया। यक्ष-यक्षिणी-भगवान श्रेयान्सनाथ के सेवक यक्ष का नाम यक्षेश्वर और सेविका यक्षिणी का नाम गौरी था। भगवान श्रेयान्सनाथ का जन्म सिंहपुरी में हुआ था। यह स्थान वाराणसो से सड़क मार्ग द्वारा छह किलो सिंहपुरी मीटर है। वाराणसी से टैक्सी पोर बस बराबर मिलती हैं। ट्रेन से जाना हो तो सारनाथ स्टेशन उतरना चाहिए। वहाँ से जैन मन्दिर वीन फलांग है। आजकल यह स्थान सारनाय कहलाता है। यहाँ श्रेयान्सनाथ के गर्भ, जन्म, दीक्षा और केवलज्ञान ये चार कल्याणक हुए थ। यहाँ एक शिखरवन्द दिगम्बर जैन मन्दिर है । मन्दिर में भगवान श्रेयान्सनाथ को ढाई फुट प्रवगाहना
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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