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________________ भगवान शीतलनाथ दय होते ही कोहरे का पता भी न चला। सर्वसाधारण के लिए घटना साधारण थी, किन्तु पात्मदृष्टा शीतलनाथ के लिये यही साधारण घटना असाधारण बन गई। वे चिन्तन में खूब गये-कोहरा नष्ट हो गया, यह सारा संसार ही नाशवान् है । प्रब मुझे दुःख, दुखी और दुःख का निमित्त इन तीनों का यथार्थ बोध हो गया। मोह के निमित्त से मैं समझता रहा-मैं सुखी हूँ, इन्द्रिय-सुख ही वास्तविक सुख है और यह सुख पुग्योदय से मुझे फिर भी मिलेगा। प्रतः प्रब मुझे इस मोह का ही नाश करना है। भगवान ऐसा विचार कर रहे थे, तभी लौकान्तिक देवों ने प्राकर भगवान की वन्दना की और उनके विचारों की सराहना की। भगवान ने तत्काल अपने पुत्र को राज्य-भार सौंप दिया और शुक्रप्रभा नाम की पालकी पर सवार होकर नगर के बाहर सहेतुक वन में पहुंचे। वहां उन्होंने माघ कृष्णा द्वादशी के दिन सायंकाल के समय पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में दो उपवास का नियम लेकर एक हजार राजाओं के साथ संयम धारण कर लिया। दीक्षा लेते ही भगवान को मनःपर्ययज्ञान प्रगट हो गया। दो दिन के पश्चात् चर्या के लिए वे अरिष्ट नगर में पहुँचे । वहाँ पुनर्वसु राजा ने नवधा भक्तिपूर्वक भगवान को प्राहार-दान देने का सौभाग्य प्राप्त किया। देवों ने रत्नवर्षा आदि पंचाश्चर्य किये। भगवान प्राहार करके विहार कर गये। वे घोर सलमान कल्याणक तपस्या करने लगे। इस प्रकार लट प्राशयवस्था के तीन वर्ष तक उन्होंने नानाविध तप किये। तदनन्तर वे एक दिन बेल के वृक्ष के नीचे दो दिन का उपवास करके ध्यानलीन हो गये। नभी पौष कृष्ण चतुर्दशी के दिन पूर्वाषाढ़ नक्षत्र में सायंकाल के समय भगवान को केवलज्ञान प्राप्त हो गया। उसी समय देवों ने पाकर भगवान के ज्ञान कल्याणक की पूजा की तथा समवसरण की रचना को। उस में रममय भीर तियंचों के समक्ष भगवान की कल्याणी दिव्यध्वनि खिरी। यह भगवान का प्रथम धर्म-चक्रप्रवर्तन था। भगवान का संघ-भगवान के संघ में मनगार आदि ८१ गणधर थे। १४०० पूर्वधारी, ५६२०० शिक्षक, १२०० अवधिज्ञानी, ७००० केवली, १२००० विक्रिया ऋविधारी मुनि, ७५०० मनःपर्यपज्ञानी थे । इस प्रकार उनके मनियों की कुल संख्या एक लाख थी। धरणा मादि ३८०००० मायिकायें थीं। दो लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकायें थीं। . निर्वाण कल्याणक-वे चिरकाल तक अनेक देशों में विहार करके भव्य जीवों को कल्याण का मार्ग बताते अन्त में ये सम्मेदशिखर जा पहुंचे और वहाँ एक माह का योग-निरोध करके उन्होंने प्रतिमा योग धारण कर प्रौर प्राश्विन शुक्ला अष्टमी को सायंकाल के समय पूर्वाषाढा नक्षत्र में समस्त कर्मों का नाश करके एक हजार मनियों के साथ मोक्ष प्राप्त किया। देवों ने प्राकर उनके निर्माण कल्याणक को पूजा की। यक्ष-यक्षिणी भगवान शीतलनाथ के सेवक यक्ष का नाम ब्रह्म यक्ष और सेविका मानवी यक्षिणी थो। भगवान शीतलनाथ के समय विश्वानल नाम का चौथा रुद्र हया था। भगवान शीतलनाथ का जन्म भद्रिकापुरी या भहिलपुर में हना था और उन्होंने अपनी जन्म-नगरी के बाह्य उद्यान में दीक्षा ग्रहण की थी तथा दीक्षा-वन में ही उन्हें केवलज्ञान हुआ। किन्तु भद्रिकापुरी कहाँ है, इस बात __ को जन समाज प्रायः भूल चुकी है। कई विद्वान् अज्ञानवश भेलसा (मध्य प्रदेश) को शोतलभ. शीतलनाथ की नाथ भगवान की जन्म-भूमि मानते हैं। किन्तु भगवान शीतलनाथ को जन्म-नगरी भद्रिकापुरी जन्म-भूमिः वर्तमान में विहार प्रान्त में हजारीबाग जिले में है और वर्तमान में उस नगर का नाम भोंदल भद्रिकापुरी गांव है। इसी प्रकार उनका दीक्षा-वन एवं केवलज्ञान कल्याणक स्थान कोल्हाया पर्वत है। यह स्थान हजारीबाग जिले को चतरा तहसील में है। यहाँ जाने के लिये ग्राण्ड ट्रंक रोड पर डोभी से या चतरा से सड़क जाती है। चतरा के लिये हजारीबाग से और ग्राण्ड ट्रंक रोड पर स्थित चौपारन से मह जाती हैं। इनके अतिरिक्त गया से शेरघाटी, हंटरगंज और हटवारिया होकर भी मार्ग है। यह हण्टरगंज से दक्षिा-पश्चिम में छह मील है। भोंदलगांव कोल्हमा पहाड़ से पांच-छह मील है।
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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