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________________ भगवान पुष्पदन्त यहीं पर काकन्दी नरेश अभयघोष हुए थे। उन्होंने एक कछुए की टांगें तलवार से काट दी थीं। कछुए का वह जीव उनके घर में ही पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। अभयघोष नरेश यथासमय पुत्र को राज्य देकर मुनि बन गये। एक बार मूनि अभयघोष विहार करते हुए काकन्दी पाये और नगर के बाहर उद्यान में ध्यान लगाकर खड़े हो गये । उनका पुत्र चण्डवेग घूमता हुमा उधर से निकला । पूर्व जन्म के वैर के कारण चण्डबेग ने मनि प्रभयघोष को देखते ही उन पर उपसर्ग करना प्रारम्भ कर दिया। उसने तीक्ष्ण धार वाले हथियार से उनके अंग काटना प्रारम्भ कर दिया। जब अन्तिम अंग कट रहा था, तभी मुनिराज को केबलज्ञान हो गया और वहीं से निर्वाण प्राप्त किया। इस प्रकार यह स्थान सिद्ध क्षेत्र भी है।। यहाँ के टीलों को लोग 'देउरा' कहते हैं। देउरा का अर्थ है देवालय । यहाँ भारत सरकार की ओर से जो खुदाई हुई थी, उसके फलस्वरूप यहाँ तीर्थकर मूर्तियाँ, चैत्य वृक्ष और स्तूपों के भग्न भाग निकले थे। यहाँ खुदाई में ईंटों का एक फर्श भी मिला था, जिसे पुरातत्त्ववेत्ताओं ने जैन मन्दिर माना है। यहां के मन्दिर में भगवान नेमिनाथ को श्यामवर्ण वाली सवा दो फूट की पदमासन प्रतिमा मुलनायक है। इसके अतिरिक्त भगवान पुष्पदन्त, भगवान पाश्वनाथ की प्रतिमायें हैं । एक चौबीसो है। अम्बिका देवी की एक पाषाण प्रतिमा भूगर्भ से निकली हुई यहाँ रक्खी है। नेमिनाथ और मम्बिका की मूर्तियां गुप्त काल या उससे भी पूर्व की हैं। ककुभग्राम याजकल इसका नाम 'कहा' है। यहीं भगगन पुष्पदन्त की दीक्षा और केवलज्ञान कल्याणक हुमा था। यह काकन्दो से १६ कि. मो. है। प्राचीन काल में यह काकन्दो का बाहरी उद्यान या वन था। पदों भी चारों मोर भग्नावशेष बिखरे पड़े हैं । यहाँ एक टे मकान में पांच फुट ऊँची सिलंटी वर्ण की एक तीर्थकर प्रतिमा रक्खी हुई है । यह बीच से खण्डित है । ग्रामीण लोग तेल-पानी से इसका अभिषेक करते हैं। ___ इस कमरे के सामने एक और ऐसी ही प्रतिमा चबूतरे पर पड़ी हुई है। यह काफी शोण है। इसका मुख तक घिस गया है। इनसे कुछ आगे एक मानस्तम्भ खड़ा है । यह २४ फुट ऊँचा है। इसमें एक और भगवान पार्श्वनाथ को सवा दो फूटी खगासन प्रतिमा उत्कीर्ण है। स्तम्भ के ऊपरी भाग में पांच तीर्थकर प्रतिमायें विराजमान हैं। ग्रामीण लोग पाश्र्वनाथ की पूजा दही-सिन्दूर से करते हैं और इस स्तम्म को 'भीमसेन की लाट' कहते हैं। स्तम्भ पर ब्राह्मी लिपि में बारह पंक्तियों का एक लेख खुदा हुआ है । उसके अनुसार इस स्तम्भ का निर्माण एवं प्रतिष्ठा मद्र नामक एक ब्राह्मण ने गुप्त संवत् १४१ (ई. सन् ४६० ) में सम्राट समुद्रगुप्त के काल में कराई थी। यह ज्ञात मान स्तम्भों में सबसे प्राचीन है।
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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