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________________ दशम परिच्छेद भगवान पुष्पदन्त पुष्करार्धं द्वीप, पूर्व विदेह क्षेत्र, सीता नदी, उसके उत्तरी तट पर पुष्कलावती देश था । उसमें पुण्डरीकिणी नगरी थी । वहाँ का राजा महापद्म था । वह बड़ा पराक्रमी था । उसने शत्रुदल को अपने वश में कर लिया था । जनता पर उसका इतना प्रभाव था कि वह जो नई परम्परा डालता था, जनता में वह रिवाज बन जाती थी । जनता उसके गुणों पर मुग्ध थी। वह बड़ा पुण्यात्मा था। उसे कभी किसी वस्तु का प्रभाव नहीं खटकता था । पूर्व भव एक दिन वनपाल ने लाकर राजा को समाचार दिया कि वन में महान विभूतिसम्पन्न भूतहित नामक जिनराज विराजमान हैं। समाचार सुनते ही वह पुरजनों-परिजनों के साथ वन में गया। वहाँ जाकर उसने जिनराज की वन्दना की, पूजा की और जाकर अपने स्थान पर बैठ गया। उनका कल्याणकारी उपदेश सुनकर राजा को संसार के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो गया । सत्यज्ञान होने पर क्या कोई संसार के भोगों और ममता के बन्धनों में बना रह सकता है । उसने तत्काल अपने पुत्र धनद को राज्य भार सौंप दिया और अनेक राजानों के साथ वह मुनि बन गया । क्रमशः वह द्वादशांग का वेत्ता हो गया और वह सोलह कारण भावनाओं का चिन्तन करने लगा जिससे उसे तीर्थकर नाम कर्म का बन्ध हो गया। अन्त में उसने समाधिमरण ले लिया । श्रायु पूर्ण होने पर वह प्राणत स्वर्ग का इन्द्र हुआ । भरत क्षेत्र में काकन्दी नगरी के अधिपति महाराज सुग्रीव थे जो इक्ष्वाकु वंशी काश्यप गोत्री थे। उनकी पटरानी का नाम जयरामा था। भगवान जब गर्भ में आये, उससे छह माह पूर्व से गर्भकाल के नौ माह पर्यन्त देवों ने रत्नवृष्टि की। एक दिन महारानी सो रही थीं। उस दिन फाल्गुन कृष्णा नौमी और मूल नक्षत्र था। ब्राह्म मुहूर्त का समय था । उस समय महारानी ने सोलह शुभ स्वप्न देखे । जब महारानी जागी तो उन्होंने अपने पति से उन स्वप्नों का फल पूछा - महाराज ने अवधिज्ञान से स्वप्नों का फल महारानी से कहा। महारानी फल सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुई । उस शुभ मुहुर्त में प्राणत स्वर्ग का वह इन्द्र आयु पूर्ण होने पर महारानी के गर्भ में अवतरित हुआ । गर्भ कल्याणक जन्म कल्याणक नौ माह पूर्ण होने पर महारानी ने मार्गशीर्ष शुक्ला प्रतिपदा के दिन जंत्रयोग में एक लोकोत्तर पुत्र को जन्म दिया। उसी समय चारों प्रकार के देवों और इन्द्रों ने आकर बाल भगवान को सुमेरु पर्वत पर ले जाकर क्षीरसागर के जल से उनका अभिषेक किया और उनका सब देवों ने मिलकर जन्म कल्याणक महोत्सव बड़े समारोह के साथ मनाया । इन्द्र ने वाले उस बालक का नाम पुष्पदन्त रक्खा। उनका लांछन मगर था । कुन्द क पुष्प 'के समान कांति बालक पुष्पदन्त जन्म काल से ही मति, श्रुत और अवधिज्ञान का धारक था। निष्क्रमण कल्याणक से सब मनुष्यों को प्रसन्न करता था। उसके वस्त्राभूषण, भोजन-पान उसके बालसाथी देव थे । वह अपनी बाल-क्रीड़ाओं सभी कुछ देवोपनीत थे। जब बालक कुमार अवस्था पार करके यौवन को प्राप्त हुआ, पिता ने अपना राजपाट उसे सौंप दिया मोर ये मुनि दीक्षा लेकर आत्म-कल्याण के लिये वनों में चले गये। राज्य शासन करते हुए महाराज पुष्पदन्त ने संसार
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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