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________________ नवम परिच्छेद भगवान चन्द्रप्रभ 'भगवान चन्द्रप्रभ का जीव एक जन्म में श्रीपुर के राजा श्रीषेण और रानी श्रीकान्ता का पुत्र श्रीवर्मा हुआ । एक दिन उल्कापात देखकर उसे भोगों से विरक्ति हो गई और उसने श्रीप्रभ जिनेन्द्र के निकट मुनि दीक्षा ले ली। श्रायु पूरी होने पर प्रथम स्वर्ग में देव हुआ। उस देव का जीव आयु समाप्त होने पर घातकी पूर्व भव खण्ड की अयोध्या के राजा अजितजय और अजितसेना का अजितसँन नामक पुत्र हुआ । राज्य प्राप्त होने पर उसकी आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ। उसने दिग्विजय करके चक्रवर्ती पद प्राप्त किया । यद्यपि पुण्योदय से भोग की सम्पूर्ण सामग्री उसके निकट थी किन्तु उसकी भोगों में तनिक भी प्रासक्ति नहीं थी । वह बड़ा न्यायपरायण और धर्मनिष्ठ था। लोग उसे राजर्षि कहते थे। पुण्य कर्म के उदय से उसे चौदह रत्न और नौ निधियां प्राप्त थीं। भाजन, भोजन, शय्या, सेना, सवारी, आसन, निधि रत्न, नगर और नाट्य इन दर्शविध भोगों का भोग करता था। एक दिन चक्रवर्ती ने प्ररिन्दम तारक मुनि को श्राहार-दान किया । फलस्वरूप रत्न वर्षां श्रादि पंचाश्चर्य प्राप्त किये। दूसरे दिन वह गुणप्रभ जिनेन्द्र की वन्दना करने गया और उनका उपदेश सुनकर बहुत से राजाओं के साथ संयम धारण कर लिया । अन्त में समाधिमरण करके वह सोलहवें स्वर्ग में अच्युतेन्द्र हुआ। आयु पूर्ण होने पर अच्युतेन्द्र धातकी खण्ड के रत्नसंचयपुर के नरेश कनकप्रभ और उसकी रानी कनक माला का पद्मनाभ नामक पुत्र हुआ । यौवन अवस्था में राज्य प्राप्त कर सुखपूर्वक रहने लगा। फिर एक दिन उसे वैराग्य हो गया और दीक्षा ले ली। वह मुनि अवस्था में चारों प्राराधनाओं का आराधन करने लगा। उसने ग्यारह अंगों का पारगामी बन कर सोलह कारण भावनाओं का चिंतन किया और तीर्थंकर नाम कर्म का बन्ध किया। वह नाना प्रकार के तपों द्वारा कर्मों का क्षय करता रहा। अन्त में समाधिमरण करके वह वैजयन्त नामक अनुत्तर विमान म हुआ। तेतीस सागर की आयु उसने प्राप्त की । भरतक्षेत्र में चन्द्रपुर नामक नगर के अधिपति इक्ष्वाकुवंशी काश्यप गोत्री महासेन राजा थे । उनको रानी का नाम लक्ष्मणा था। उनके प्रासाद के प्रांगण में छह माह तक देवों ने रत्न- वर्षा की। श्री ह्रो आदि देवियाँ महारानी की सेवा करती थीं। देवोपनीत वस्त्र, माला, लेप तथा शय्या प्रादि सुखों का भोग करती थी। गर्भ कल्याणक उन्होंने चैत्र कृष्णा पंचमी को पिछली रात्रि में सोलह स्वप्न देखे । प्रातः काल होने पर उन्होंने वस्त्राभरण धारण किये और सिंहासन पर आसीन अपने पति के निकट जाकर उन्होंने उनसे अपने स्वप्नों की चर्चा की। महाराज ने अवधिज्ञान से स्वप्नों का फल जानकर रानी से कहा- देवो ! तुम्हारे गर्भ में तीर्थकर प्रभु पधारे हैं। फल सुनकर रानी अत्यन्त हर्षित हुईं। देवों ने गर्भ के नौ माह तक रत्न - वर्षा की । श्री ही, धृति, कीर्ति बुद्धि और लक्ष्मी देवियां उनकी कान्ति, लज्जा धैर्य, कोर्ति, बुद्धि और सौभाग्य सम्पत्ति को सदा बड़ाती रहती थीं तथा माता का मनोरंजन नाना प्रकार से किया करती थीं । पुत्र गर्भ-काल व्यतीत होने पर रानी ने पौष कृष्णा एकादशी को शक्र योग में देवपूजित, अलौकिक प्रभा के धारक को जन्म दिया। उसी समय इन्द्र और देव शाये । सौधर्मेन्द्र ने अपनी शची के द्वारा बाल प्रभु को मगाकर, सुमेरु पर्वत पर लेजाकर क्षीरसागर के जल से उनका अभिषेक किया। उन्हें दिव्य वस्त्रालंकारों से विभूषित किया, तीन लोक के राज्य को कण्ठी बांधी और उनकी रूप छटा को हजार नेत्र बना जन्म कल्याणक :
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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