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________________ सप्तम परिच्छेद भगवान पद्मप्रभ घातकी खण्ड द्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में सीत. नदी के दक्षिण संस का बत्ती । उसमें मुहीरा नामक एक नगर था। उसके अधिपति महाराज अपराजित थे । उनके राज्य में प्रजा खूब सुखी पोर समृद्ध थी। उन्होंने बहुत समय तक सांसारिक भोग भोगे । एक दिन उनके मन में विचार माया कि संसार में समस्त वंभव पर्याय क्षणभंगुर हैं। सुख पर्यायों द्वारा भोगे जाते हैं। पर्याय नष्ट होने पर वह सुख भी नष्ट हो जाता है। प्रतः संसार के सम्पूर्ण सुख क्षणभंगुर हैं। यह विचार कर उन्होंने अपने पुत्र सुमित्र को राज्य देकर पिहिताप्लव जिनेन्द्र के पास जाकर जिन-दीक्षा ले ली। उनके चरणों में उन्होंने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, और षोडश कारण भावनामों का चिन्तन करके तीर्यकर प्रकृति का वध कर लिया । मायु के अन्त में समाधिमरण करके ऊर्ध्वग्रंवेयक के प्रीतिकर विमान में महमिन्द्र हुए। कौशाम्बी नगरी में इक्ष्वाकुवंशी काश्यप गोत्री धरण नामक राजा राज्य करते थे। उनकी महारानी का नाम सुसीमा था । जब उपर्युक्त अहमिन्द्र का जीव. उनके गर्भ में पाने वाला था, तब उसके पुण्य प्रभाव से गर्भावतरण से छह माह पूर्व से देवों ने महाराज धरण के नगर में रत्न-वृष्टि करना प्रारम्भ किया जो भगवान गर्भावतरण के जन्म लेने तक बराबर होती रही। माघ कृष्णा षष्ठी के दिन ब्राह्म मुहूर्त में, जब चित्रा नक्षत्र और चन्द्रमा का योग हो रहा था, महारानी ने सोलह स्वप्न देखकर मुख में एक हाथी को प्रवेश करते देखा । पति से स्वप्नों का फल जानकर वह बड़ी हषित हई।। गर्भ-काल पूरा होने पर कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी के दिन त्वष्ट्र योग में लाल कमल की कलिका के समान कान्ति वाले पुत्र को महारानी सुसीमा ने जन्म दिया। पुत्र असाधारण था, लोकोत्तर कान्ति थी, उसका अदभत प्रभाव था। इस पत्र के उत्पन्न होते ही क्षणभर के लिये तीनों लोकों के जीवों को जन्म कल्याणक सुख का अनुभव हुमा । उसी समय सौधर्म इन्द्र पन्य इन्द्रों और देवों के साथ आया और बाल भगवान को लेकर सुमेरु पर्वत पर पहुँचा । वहाँ क्षीरसागर के जल से उनका अभिषेक किया और उनका नाम पद्मप्रभ रक्खा। फिर वापिस लाकर माता को सौंपकर मानन्दमग्न होकर नृत्य किया । इनका चिन्ह कमल था। जब उनकी मायू का चतुर्थांश व्यतीत हो गया, तब उन्हें राज्य-शासन प्राप्त हमा। उनके राज्य में कोई दुखी नहीं था । कोई दरिद्र नहीं था। सब निर्भय और निश्चिन्त थे। सभी लोग सम्पन्न थे। एक दिन उनके हाथी की मृत्यु हो गई। घटना साधारण थी, किन्तु इस घटना की उनके मन पर जो प्रतिक्रिया हुई, वह भिन्न थी । उन्होंने मवर्विज्ञान से हाथी के पिछले भव पर विचार किया और वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि जिसका अन्म हुमा है, उसकी मृत्यु निश्चित है। किन्तु इस जन्म-मरण की दीक्षा-कल्याणक श्रृंखला का अन्त क्यों नहीं होता? प्रत्येक जीव सुख चाहता है। किन्तु मृत्यु के पश्चात् जन्म न हो, इसका प्रयत्न विरल ही करते हैं। जो मृत्यु को जीत लेते हैं, उनका पुनः जन्म नहीं होता। मैं पब मृत्युंजय बनने का प्रयल करूँगा और पनादिकाल की इस जन्म-मरण की श्रृंखला का उच्छेद करूंगा। बेये विचार कर ही रहे थे, तभी लोकान्तिक देवों ने पाकर भगवान की स्तुति की, उनके संकल्प की
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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