SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय परिच्छेद भगवान अजितनाथ तीर्थकर नामकर्म सातिशय पुण्य प्रकृति है । यह प्रकृति उसी महाभाग के बंधती है, जिसने किसी पूर्व जन्म में दर्शन विशुद्धि प्रादि सोलह कारण भावनामों का निरन्तर चिन्तन किया हो, तदनुकूल अपना जीवन-व्यवहार बनाया हो और जिसके मन में सदाकाल यह भावना जागृत रहती हो-'संसार में दख ही दुःख है। प्रत्येक प्राणी यहाँ दुःखों से व्याकुल है। मैं इन प्राणियों का दुःख किस प्रकार दूर कर जिस सखी हो सके। सम्पूर्ण प्राणियों के सुख की निरन्तर कामना करने वाले महामना मानव को तीर्थकर प्रकृति का बंध होता है अर्थात् धागामी काल में तीर्थकर बनता है। द्वितीय तीर्थकर अजितनाथ ने भी पहले एक जन्म में इसी प्रकार की भावना की थी। उसकी कथा इस प्रकार है:-- वत्स देश में सुसीमा नाम की एक नगरी थी। वहां का नरेश विमलवाहन बड़ा तेजस्वी और गुणवान या। उसमें उत्साह शक्ति, मंत्रशक्ति और फलशक्ति थी। वह उत्साह सिद्धि, मंत्रसिद्धि और फलसिद्धि से युक्त था। वह पुत्र के समान मपनी प्रजा का पालन करता था। उसके पास भोगों के सभी साधन थे, किन्तु उसका मन कभी भोगों में पासक्त नहीं होता था। वह सदा जीवन की वास्तविकता के बारे में विचार किया करता-जिस जीवन के प्रति हमारी इतनी प्रासक्ति है, इतना महंकार है, वह सीमित है। क्षण-प्रतिक्षण बह छीज रहा है और एक दिन वह समाप्त हो जायगा। इसलिए भोगों में इसका म्यष न करके प्रारम-कल्याण के लिये इसका उपयोग करना चाहिए। यह विचार कर उसने एक क्षण भी व्यर्ष नष्ट करना उचित नहीं समझा और अपने पुत्र को राज्य-शासन सौंपकर मनेक राजायों के साथ उसने दैगम्बरी वीक्षा धारण कर ली। उसने ग्यारह अंगों का ज्ञान प्राप्त कर लिया, दर्शन-विशुद्धि आदि सोलह कारण भावनामों का निरन्तर चिन्तवन किया। फलतः उसे तीर्थकर प्रकृति का बन्ध हो गया । प्रायु के अन्त में पंच परमेष्ठियों में मन स्थिर कर समाधिमरण कर वह विजय नामक अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुमा । भगवान के जन्म लेने से छह माह पूर्व से इन्द्र की पाशा से कुबेर ने साकेत नगरी के अधिपति इक्ष्वाकु वंशी और काश्यपगोत्री राजा जितशत्रु के भवनों में रत्नवर्षा की। ज्येष्ठ कृष्णा अमावस्या को महाराज जितशत्रु की रानी विजयसेना के गर्भ में विमलवाहन का जीव स्वर्ग से पायु पूर्ण होने पर अवतरित भगवान मजितमाय हुमा । उस रात्रि के अन्तिम प्रहर में महारानी ने सोलह शुभ स्वप्न देखे। स्वप्न दर्शन के का गर्भकल्याणक पश्चात उन्होंने देखा कि मुख में एक मदोन्मत्त हाथी प्रवेश कर रहा है। प्रातःकाल होने पर महारानी ने अपने पति के पास जाकर स्वप्नों की चर्चा की पौर उनका फल जानना चाहा । महाराज ने अपने प्रवधिज्ञान से जानकर हर्षपूर्वक बताया कि तुम्हारे गर्भ में तीर्थंकर प्रवती नौ माह पूर्ण होने पर माघ शुक्ला दशमी के दिन प्रजेश योग में तीर्थकर भगवान का जन्म हमा। जन्म भगवान का जन्म होते ही इन्द्रों मोर देवों ने प्राकर भगवान का जन्म-कल्याणक मनाया और सुमेरु पर्वत पर महोत्सब ले जाकर पाण्डक शिला पर उनका जन्माभिषेक किया। उनका वर्ण तप्त स्वर्ण के समान था। आपका चिन्ह हापी था।
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy