SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भारत का निष्पक्ष न्याय १०७ उसके आठों रक्षक विद्याषरों के रथ सारथी तथा धनुषवाण नष्ट कर दिये । प्रर्ककीर्ति निरुपाय हो गया । जयकुमार ने क्षण भर का बिलम्ब किये बिना प्रर्ककीर्ति को पकड़ लिया और नागपाश से सम्पूर्ण विद्याधर राजाओं को बाँध लिया । युद्ध समाप्त हो गया। जयकुमार ने प्रकीति और बंधे हुए राजानों को महाराज प्रकंपन के सुपुर्द कर दिया । हताहतों की समुचित व्यवस्था करके सबने वाराणसी नगरी में प्रवेश किया। वे सर्वप्रथम नित्यमनोहर नामक चैत्यालय में गये और जिनेन्द्र प्रभु के दर्शन किये, जिनकी अनुकम्पा से अनिष्ट की शान्ति हुई । फिर अपनी महारानी सुप्रभा के निकट कायोत्सर्ग से खड़ी हुई पुत्री सुलोचना के पास गये । उसने संकट निवारण तक चारों प्रकार के बहार का त्याग कर दिया था। महाराज प्रकंपन ने उसे विजय का हर्ष - समाचार सुनाया तथा कहा -- बेटी ! तेरे पुण्ययोग से सब विघ्न टल गए हैं। अब तुम अपने महलों में जाम्रो ।' यह कहकर पुत्री को उसकी माता तथा भाइयों के साथ राजभवन में भेज दिया । महाराज अकंपन ने मंत्रियों से परामर्श किया और फिर विद्याधर राजाओं का सत्कार करके छोड़ दिया। फिर वे कुमार कीति के पास पहुँचे और उनको नाना प्रकार के मीठे वचनों से प्रसन्न किया। उन्होंने जयकुमार को भी बुलाकर दोनों की फिर उन्होंने अपनी द्वितीय पुत्री अक्षमाला का विवाह प्रकीति के साथ बड़े वैभव के साथ कर दिया और बड़े मान-सम्मान के साथ अर्केकीति तथा मन्य राजाम्रों को विदा कर दिया । 4. तब उपर्युक्त देव ने जयकुमार के साथ सुलोचना का विवाह कर दिया और उन्हें नाना प्रकार के अनर्घ्य उपहार दिये। महाराज अंकपन बड़े अनुभवी और दूर दृष्टि थे। उन्होंने परामर्श करके एक चतुर दूत को बहुमूल्य रत्न प्रादि की भेंट देकर चक्रवर्ती के पास भेजा। उसने चक्रवर्ती के दरबार में जाकर उनके चरणों में भेंट चढ़ाई, साष्टांग वर्ती का न्याय प्रणाम किया और महाराज प्रकंपन एवं जयकुमार की ओर से लघुता प्रगट करते हुए इस घटना का सारा दोष अपने ऊपर ले लिया और अपराध का दण्ड देने की प्रार्थना की। चक्रवर्ती ने दूत को बीच में ही रोककर उन दोनों को प्रशंसा की। उन्होंने कहा- महाराज कंपन तो मेरे पूज्य हैं। मैं यदि कोई अन्याय करूं तो उन्हें मुझे रोकने का अधिकार है । और जयकुमार ! उसी की बदौलत मेरा यह चक्रवर्ती पद है। अपराध कीर्ति का है। उसने मेरी कीर्ति में कलंक लगा दिया है । मैं उसे अवश्य दण्डदूँगा । जयकुमार कुछ दिनों तक वाराणसी में ही रहा और सुलोचना के साथ उसने यथेच्छ भोग किया। एक दिन अपने मन्त्री का पत्र पाकर और उसका गूढ़ अर्थ समझकर अपने श्वसुर महाराज श्रकपन से जाने की अनुमति मांगी 1 महाराज ने विचार कर 'तथास्तु' कहा । मौर प्रतेक प्रकार की बहुमूल्य भेंट देकर दोनों को सम्मानपूर्वक विदा किया। जयकुमार भी सुलोचना को लेकर अपने भाइयों और सेना के साथ वहाँ से चल दिया । मार्ग में एक स्थान पर सेना का पड़ाव पड़ा। वहाँ समझा-बुझाकर सुलोचना को छोड़ा और अपने भाइयों को उसकी रक्षा में नियुक्त कर स्वयं पयोध्या की मोर प्रस्थान किया। अयोध्या पहुँचने पर अनेक मान्य पुरुषों ने उसका स्वागत किया । वह युबराज र्कीति से बड़े प्रेम से मिला । वह सीधा राजदरबार में पहुँचा और महाराज भरत के समक्ष जाकर अष्टांग प्रणिपात किया | महाराज भरत बोले- क्यों जयकुमार तुम बहू को क्यों नहीं लाये ? हम तो उसे वेलने के लिये उत्सुक थे । तुमने हमें अपने विवाह में भी नहीं बुलाया। महाराज प्रकंपन ने भी हमें भुलाकर बन्धुवान्धवों से हमें अलग कर दिया । इस प्रकार कहकर उन्होंने जयकुमार का समुचित प्रादर-सत्कार किया और बहू के लिये बहुमूल्य वस्त्रालंकार प्रदान करके उसे विदा किया। जयकुमार भी हाथी पर मारूढ़ होकर प्रपती प्रिया से मिलने चल दिया । चक्रवर्ती ने 'युवराज 'को राज सभा में ही बुलाकर उसके कृत्य की समुचित भर्त्सना की ।
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy