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________________ १०४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास थे। वे एक साथ सबका भोग भी करते थे, किन्तु भोग के समय भी उनकी भावना योग की रहती थी। वे भोग देह का करते और उनको रस पाता था देहातीत । इसका कारण था। भोग करते हुए भी वे प्रात्मानन्द को भूलते नहीं थे। कभी-कभी तो भोग करते समय जब उन्हें आत्म-चिन्तन की सुधि या जाती थी तो वे भोग को भूलकर पात्मा में लीन हो जाते थे। एक दिन पदमहिषी सुभद्रा के महलों में चक्रवर्ती पधारे। सुभद्रा ने उनकी अभ्यर्थना की। रात्रिशयन भी बहीं हुआ। भुवनमोहिनी अनिद्यसुन्दरी सुभद्रा ने अपने पति को मुक्त भाव से रस-दान किया। किन्तु जब रसानुभूति अपनी चरम सीमा पर पहुँची, भरत के अन्तर्मन ते लिवर दुल गो: वे चिलम में डब गये'अनन्त काल बीत गया शरीर और इन्द्रियों की तृप्ति का प्रयत्न करते करते, किन्तु क्या कभी ये तप्त हो सकी। नित नवीन शरीर मिले और इन्द्रिय-भागों में ही सारा जीवन गला दिया। जीवन भर प्रतप्ति से जझता रहा किन्तु भोगों की प्यास कभी बुझी नहीं। कभी प्रात्म-रस का स्वाद नहीं लिया । यदि एक बार भी प्रात्मानुभव हो जाता तो अनन्त जीवनों की प्रतप्ति एक क्षण भर में मिट जाती।' यों चिन्तन करते करते वे प्रात्म-रस का पान करने में बेसुध हो गये । शरीर निश्चेष्ट हो गया । पट्टमहिषी इस स्थिति का कारण न समझ सकी। कैसी अकल्पनीय परिणति थी भरत की । इसीलिए तो घर में रहते हुए भी भरत वैरागी कहलाते हैं। वस्तुतः वे राजर्षि थे, विदेह थे । श्रीमद्भागवत में उन्हें भगवत्परायण माना है और उन्हें जड़ भरत बताया है। जड़ अर्थात सांसारिक भोगों के प्रति अनासक्त ।। उनके पास भोग और वैभव का विशाल स्तूप था । यह जितना ऊँचा था, उससे भी ऊँचा इनके प्रति उनका विराग था। राग के सभी साधन उन्हें उपलब्ध थे, उनका भोग भी खूब किया उन्होंने किन्तु भावना सदा इनसे मुक्ति की रही। इसलिए राग हारा और विराग की सदा जय हई। अद्भुत व्यक्तित्व था उनका । अनुपम भी था । ऐसा व्यक्तित्व संसार में दूसरा कोई नहुमा, न होगा। २१. मरत का निष्पक्ष न्याय भरत चक्रवर्ती सम्राट् थे। जब वे राज-सिंहासन पर बैठते थे, उस समय वे केवल राजा थे। उनके समक्ष अनेक अभियोग उपस्थित होते थे। उन्हें सुनकर वे उनका उचित न्याय करते थे। उनके न्याय में कभी कोई सम्बन्ध आडे नहीं पाता था, कोई सम्बन्ध उनके न्याय को प्रभावित नहीं कर सकता था। भले ही अभियोग उनके युवराज के ही विरुद्ध क्यों न हो, किन्तु र याय को तुला पर सामान्य जन और युवराज' में कोई मन्तर नहीं पाता था। एक बार अभियोगकर्ता थे स्वयं युवराज मर्ककोति । अभियोग था चक्रवर्तो के प्रमुख सेनापति जयकुमार के विरुद्ध । राज दरबार स्तब्ध था कि देखें, न्याय किसके पक्ष में जाता है । अभियोग उपस्थित किया गया, सुनवाई हुई। दोनों पक्षों ने अपना पक्ष उपस्थित किया। सम्राट् ने पाया-बोष युवराज का है। उन्होंने मर्यादा का भंग किया है। युवराज दोषी घोषित हुए और सबके समक्ष सम्राट ने उनकी भर्त्सना की। न्याय की यह कहानी जितनी अद्भुत है, उतनी रोचक भी है। सुनिये उसे। काशी नरेश अकम्पन की स्त्री सुप्रभा थी। उन दोनों के सुलोचना नाम की एक पुत्री पी जो सुलक्षणा थी और सर्वगुण-सम्पन्न थी। जब वह विवाह योग्य हई तो राजा को उसके विवाह की चिन्ता हई। तब राजा ने मंत्रियों से परामर्श करके उसके स्वयम्बर का निश्चय किया। उन्होंने दूतों द्वारा राजामों को सुलोचना स्वयम्बर इसकी सूचना दी। इसके लिये नगर के बाहर सर्वतोभद्र नामक विवाह-मण्डप की रचना की गई। निश्चित तिथि को पनेक देशों के राजा और राजकुमार अपनी सेनामों के साथ वहाँ
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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