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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भगवान ने उन राजकुमारों को अविनाशी मोक्षसुख प्राप्त करने का उपाय बताते हुए उपदेश दिया । भगवान के हितकारी वचन सुनकर उन राजकुमारों को वैराग्य हो गया। उन्होंने भगवान के चरणों में दीक्षा धारण करती और वे निग्रंथ दिगम्बर मुनि वन गये। वे घोर तप करने में प्रवृत्त हो गये । उन्होंने द्वादशाङ्ग बाणी का अध्ययन किया। उन्होंने ग्यारह अंग और चौदह पूर्वो का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया । ६२ १६. भरत- बाहुबली-युद्ध चक्रवर्ती विचार करने लगे कि मेरे अन्य भाइयों और बाहुबली में बहुत अन्तर है। बाहुबली महा बलवान, मानधन से युक्त और युद्ध में शत्रुओं के लिए महा भयंकर है । वह दाम, दंड और भेद से वश में श्राने वाला नहीं है । इसलिए उस पर साम नीति का ही प्रयोग करना उचित है। यदि वह फिर भी दश में नहीं भरत और बाहुबली श्राया, तब उस परिस्थिति पर पुनः विचार कर जो उचित होगा, वह किया जायगा। यह का निर्णायक युद्ध विचार कर चक्रवर्ती ने नीति विचक्षण एक चतुर दूत को बाहुबली के पास भेजा । वह दूत शोधतापूर्वक मार्ग तय करता हुआ बाहुबली के पोदनपुर नामक नगर में पहुंचा। उसने राजद्वार पर जाकर द्वारपाल से अपना परिचय और उद्देश्य बाहुवली के पास भिजवा दिया। बाहुबली ने दूत को तत्काल अन्दर बुला भेजा । दूत ने अप्रतिम सौन्दर्य और वीरवर्ष की राशि कुमार बाहुबली को देखा। उसने कुमार बाहुबली के समक्ष जाकर उनके चरणों में नमस्कार किया। कुमार ने उसका यथोचित सम्मान करके अपने पास ही बैठाया । कुमार ने मन्द स्मित द्वारा अपने भाई चक्रवर्ती की कुशल मंगल पूछी। दूत ने अत्यन्त विनयपूर्वक उत्तर दिया- हे प्रभो ! हम तो ग्रपने स्वामी के सेवक हैं। उनका सन्देश पहुंचाना हो हमारा कर्तव्य है । भरत इक्ष्वाकुवंशी हैं, भगवान् ऋषभदेव के पुत्र हैं, आपके बड़े भ्राता है। उन्होंने भरत क्षेत्र के समस्त राजाद्यों देवों और विद्याधरों को जीत लिया है। समुद्र, गंगा और सिन्धु के अधिष्ठाता देव ने उनकी भारती उतारी है। उन्होंने वृषभाचल पर दण्डरल से अपना नाम उत्कीर्ण किया । समस्त रत्न और निधियों उन्हें प्राप्त हैं । उन्होंने आपको भाशीर्वाद दिया है और आज्ञा दी है कि समस्त द्वीप और समुद्रों तक फैलर हुआ हमारा राज्य हमारे प्रिय भाई बाहुबली के बिना शोभा नहीं देता। दूसरी बात यह है कि यदि आप उन्हें प्रणाम नहीं करते तो उनका चक्रवर्ती पद भी सुशोभित नहीं होता। इसलिये आप उन्हें जाकर नमस्कार करिये । उनकी आज्ञा कभी व्यर्थ नहीं जाती। जो उनकी आज्ञा की अवहेलना करते हैं, उनके नियमन के लिये उनका चक्ररत्न है । इसलिये आप चलकर उनके मनोरथ पूर्ण कीजिये । आप दोनों भाइयों के मिलाप से संसार मिलकर रहेगा । दूत के निवेदन करने पर कुमार बाहुबली मन्दमन्द मुस्कराते हुए बोले- हे दूत ! तू बहुत चतुर है। तूने साम नीति की बात करते हुए भेद और दण्ड की भी बातें चतुराई से कह दीं। किन्तु तुने इनका प्रयोग्य स्थान में प्रयोग किया है। बड़ा भाई वन्दनीय है किन्तु सिर पर तलवार रखकर प्रणाम कराना तो प्रयुक्त है। आदि ब्रह्मा भगवान ऋषभदेव ने राजा शब्द मेरे और भरत के दोनों के लिये दिया है। भरत राजराज बन जाय, हम अपने धर्मराज्य में रहकर राजा ही बने रहेंगे। भरत हम लोगों को बच्चों की तरह बुलाकर और प्रणाम कराकर पृथ्वी का कुछ टुकड़ा देना चाहता है। किन्तु मनस्वी पुरुष अपने भुजबल से भोग अर्जित करना पसन्द करता है, दूसरे के अनुग्रह से मिला हुआ दान उसके लिये तुच्छ होता है। वन में निवास करना अच्छा है, प्राण विसर्जन करना अच्छा है, किन्तु कुलाभिमानी पुरुष कभी दूसरे की ग्राशा के अधीन रहना या परतन्त्र रहना स्वीकार नहीं करेगा । हे द्रुत !
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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