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महावीराचार्यप्रणीतः गणित सारसंग्रहः १. संज्ञाधिकारः
मङ्गलाचरणम्
अलङ्घयं त्रिजगत्सारं यस्यानन्तचतुष्टयम् । नमस्तस्मै जिनेन्द्राय महावीराय तायिने ॥ १ ॥ संख्याज्ञानप्रदीपेन जैनेन्द्रेण महोत्विषा । प्रकाशितं जगत्सर्वं येन तं प्रणमाम्यहम् ॥ २ ॥ प्रीणित: प्राणिसस्यौघो निरीतिर्निरवग्रहः । श्रीमतामोघवर्षेण येन स्वेष्टहितैषिणा || ३ || पापरूपाः परा यस्य चित्तवृत्तिहविर्भुजि । भस्मसाद्भवमीयुस्तेऽवन्ध्यकोपोऽभवत्ततः ॥ ४ ॥ वशीकुर्वन् जगत्सर्वं स्वयं नानुवशः परैः । नाभिभूतः प्रभुस्तस्मादपूर्व मकरध्वजः ॥ ५ ॥ यो विक्रमक्रमाक्रान्तचं क्रिचक्रकृतक्रियः । चक्रिकाभञ्जनो नाम्ना चक्रिकाभञ्जनोऽञ्जसा ॥ ६ ॥
१ MB मह° । २ M प्रणीतः । ३ M सर्गों । ४ MK सद्भां । ५ KPB भवेत् । ६ B योऽयं । ७M की । ८ MB श° |
१. संज्ञा ( पारिभाषिक शब्द ) अधिकार
मङ्गलाचरण
जिन्होंने तीनों लोकों में सारभूत एवं मिथ्या दृष्टियों द्वारा अलंघ्य अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्य और अनन्त सुख नामक अनन्त चतुष्टय को प्राप्त किया, ऐसे रक्षक जिनेन्द्र भगवान् महावीर को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥ मैं महान् विभूति को प्राप्त जिनेन्द्र को नमन करता हूँ जिन्होंने संख्याज्ञान के प्रदीप से समस्त विश्व को प्रकाशवान किया है ॥ २ ॥ धन्य हैं वे अमोघवर्ष ( अर्थात् वे जो वास्तव में उपयोगी वृष्टि की वर्षा करते हैं, ) जो हमेशा अपने प्रियपात्रों के हितचिन्तन में रहते हैं और जिनके द्वारा प्राणी तथा वनस्पति, महामारी और दुर्भिक्ष आदि से मुक्त होकर सुखी हुए हैं ॥ ३ ॥ जिन ( अमोघवर्ष ) के चित्त की क्रियायें अग्निपुंज सदृश होकर समस्त पापरूपी वैरियों को भस्म में परिणत करने में सफल हैं, और जिनका क्रोध व्यर्थ नहीं जाता ॥ ४ ॥ जिन्होंने समस्त संसार को अपने वश में कर लिया है और जो किसी के वश में न रहकर शत्रुओं द्वारा पराजित नहीं हो सके हैं, अपूर्व मकरध्वज की तरह शोभायमान हैं ॥ ५ ॥ जिनका कार्य, अपने पराक्रम द्वारा पराभूत राजाओं के चक्र ( समूह ) द्वारा होता है, और जो न केवल नाम से चक्रिका भंजन हैं वरन् वास्तव में भी चक्रिका अंजन ( अर्थात् जन्म और मरण के चक्र के नाशक' ) हैं ॥ ६ ॥ जो अनेक ज्ञान सरिताओं के अधिष्ठाता
१ भविष्य की अपेक्षा से ।