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ग्रन्थमाला संपादकीय
पढ़ना, लिखना और गिनना ये मनुष्य की मौलिक विद्यायें मानी गई हैं। जैन-शास्त्रों में जिन बहत्तर कलाओं का उल्लेख मिलता है उनमें सर्वप्रथम स्थान लेख का और दूसरा गणित का है । तथापि आगमों में प्रायः इन कलाओं को 'लेहाइयाओ गणियप्पहाणाओ' अर्थात् लेखादिक, किन्तु गणित प्रधान कहा गया है। इससे सिद्ध होता है कि बालक की शिक्षा में एवं मानवीय व्यवहार में गणित का बड़ा महत्त्व था।
जैन-साहित्य यद्यपि धर्म व दर्शन प्रधान है, तथापि उसमें गणित-शास्त्र का उपयोग व व्याख्यान पद पद पर पाया जाता है। विशेषतः इस साहित्य के चार अनुयोग-प्रथम, करण, चरण और द्रव्य माने गये हैं। उनमें करणानुयोग में लोक का स्वरूप वर्णित पाया जाता है; और उस निमित्त से सूर्य, चन्द्र व नक्षत्र तथा द्वीप, समुद्र आदि के विवरणों में गणित की नाना प्रक्रियाओं का प्रचुरता से उपयोग किया गया है । सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति एवं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति नामक उपाङ्गों में तथा तिलोयपण्णत्ति, षट्खंडागम की धवल टीका एवं गोम्मटसार व त्रिलोकसार तथा उनकी टीकाओं में प्रचुरता से गणित का प्रयोग पाया जात है; और वह भारतीय प्राचीन गणित के विकास को समझने के लिये बड़ा महत्त्वपूर्ण है। सूर्यप्रज्ञप्ति को तो गणितानुयोग भी कहा गया है। वैदिक परम्परा में गणित का विषय वेदाङ्ग ज्योतिष आदि ज्योतिष के ग्रंथों में प्रयुक्त पाया जाता है। पाँचवीं शती में हुए आर्यभट ही एक सर्वप्रथम ज्योतिषी पाये जाते हैं जिन्होंने अपने आर्याष्टशत नामक कृति में ३३ श्लोकात्मक गणित का एक प्रकरण स्वतंत्र रूप से जोड़ा है। उनके पश्चात् हए ब्रह्मगुप्त ने भी अपने ब्राह्म स्फुट सिद्धान्त नामक ग्रंथ में गणित का एक अध्याय जोड़ा है।
इस समस्त परम्परा में एक भी ऐसा ग्रंथ नहीं दिखाई देता जो पूर्णतः गणित-विषयक कहा जा सके । ऐसा सर्वप्रथम ग्रंथ महावीराचार्य कृत गणितसार-संग्रह ही है जिसकी रचना राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष के राज्यकाल में हुई थी जो सन् ८१३ से ८८० ईस्वी तक पाया जाता है। यह राजा जैनधर्म का बड़ा अनुरागी था और उसके संरक्षण में बहुत से जैन साहित्य की रचना हुई। राजा स्वयं एक कवि था और प्रश्नोत्तर-रत्न-मालिका नामक प्रख्यात सुभाषित कविता उसी की बनाई सिद्ध होती है। प्रस्तुत ग्रंथ की उत्था निका में ही अमोघवर्ष की बड़ी प्रशंसा की गई है। यहाँ जो उन्हें महान् यथाख्यात-चारित्र-जलधि आदि विशेषण दिये गये हैं उनपर से ऐसा अनुमान होता है कि उन्होंने राज्यत्याग कर मुनिधर्म धारण किया था । रत्नमालिका के अन्त में जो उन्हें 'विवेकात् त्यक्तराज्येन' कहा है उससे भी इसी बात का समर्थन होता है। (देखिये डॉ० ही० ला० जैन, राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष की जैन-दीक्षा, जैन सिद्धान्त भास्कर, आरा, १९४३ )। एक पूर्णतः गणित विषयक ग्रंथ ऐसा भी मिला है जो आश्चर्य नहीं महावीराचार्य से