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________________ कलासवर्णव्यवहारः गच्छानयनसूत्रम्द्विगुणचयगुणितवित्तादुत्तरदलमुखविशेषकृतिसहितात् । मूलं प्रचयाधंयुतं प्रभवोनं चयहृतं गच्छः ।।३३।। प्रकारान्तरेण तदेवाहद्विगुणचयगुणितवित्तादुत्तरदलमुखविशेषकृतिसहितात् । मूलं क्षेपपदोनं प्रचयेन हृतं च गच्छ: स्यात् ॥३४॥ अत्रोद्देशकः द्विपञ्चांशो वक्त्रं त्रिगुणचरणःस्यादिह चयः षडंशः सप्तन्नस्त्रिकृतिविहृतो वित्तमुदितम् । चयः पंचाष्टांशः पुनरपि मुखं ध्यष्टममिति त्रिचत्वारिंशा:स्वं प्रिय वद पदं शीघ्रमनयोः॥३५।। ___आधुत्तरानयनसूत्रम्-. गेच्छाप्तगणितमादिविगतैकपदार्धगुणितचयहीनम् । पदहृतधनमायूनं निरेकपददलहृतं प्रचयः ॥३६।। १ नीचे लिखे हुए दो श्लोकों में स्थान में M में इस प्रकार का पाठ है अष्टोत्तरगुणराशीत्यादिना इष्ट-धनगच्छ आनेतव्यः । इसके साथही, परिकर्म व्यवहार की ७० वीं गाथा की पुनरावृत्ति है। २ K और B प्रभवो गच्छाप्तधनम् ।। समान्तर श्रेढि में पदों की संख्या निकालने के लिये नियम प्रथम पद और प्रचय की आधी राशि के अन्तर के वर्ग में, प्रचय की दुगुनी राशि को श्रेढि के योग द्वारा गुणित करने से प्राप्त राशि जोड़ी जाती है। इस प्राप्त राशि के वर्गमूल में प्रचय की आधी राशि जोड़ी जाती है। इस योगफल को प्रथम पद द्वारा हासित कर और तब प्रचय द्वारा भाजित करने पर श्रेढि के पदों की संख्या प्राप्त होती है ॥३३॥ पदों की संख्या निकालने की दूसरी विधि प्रथमपद और प्रचय की आधी राशि के अन्तर के वर्ग में, प्रचय की दुगुनी राशि को श्रेढि के योग द्वारा गुणित करने से प्राप्त फल मिलाते हैं। योगफल के वर्गमूल में से क्षेपपद घटाते हैं। जब इसे प्रचय द्वारा भाजित करते हैं तब श्रेटि के पदों की संख्या प्राप्त होती है ॥३४॥ उदाहरणार्थ प्रश्न __दी हुई श्रेढि के सम्बन्ध में, प्रथम पद ३ है, प्रचय है है और योग ५४ है। पुनः, दूसरी श्रेढि के सम्बन्ध में, प्रचय है, प्रथमपद है है और योग है। हे मित्र ! इन दो श्रेढियों के विषय में, पदों की संख्या शीघ्र निकालो ॥३५॥ प्रथम पद और प्रचय निकालने के लिये नियम श्रेदि के योग को पदों की संख्या द्वारा भाजित करने से प्राप्त राशि जब एक कम पदों की संख्या की आधी राशि और प्रचय के गुणनफल द्वारा ह्वासित की जाती है, तब श्रेढि का प्रथम पद उत्पन्न होता है। जब योग को पदों की संख्यासे भाजित कर और प्रथमपद द्वारा हासित कर एक कम पदों की संख्या की आधी राशि द्वारा भाजित करते हैं तब प्रचय प्राप्त होता है। (३४) क्षेप पद के लिये अध्याय २ की ७० वी गाथा देखिये । (३६) द्वितीय अध्याय की ७४ वीं गाथा का नोट देखिये।
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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