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समस्त वेदनाओं का विभाजन दो भेदों में हो सकता है। कुछ वेदनाएँ आभ्युपगमिकी होती हैं अर्थात् उन्हें स्वेच्छापूर्वक स्वीकार किया जाता है, यथा-केशलोच आदि। कुछ वेदनाएँ औपक्रमिकी होती हैं जो वेदनीयकर्म के उदीरित होने से प्रकट होती हैं। इन वेदनाओं का वेदन जब संज्ञीभूत जीव करते हैं तब वह वेदना 'निदा वेदना' कहलाती है तथा जब इनका वेदन असंज्ञीभूत जीव करते हैं तो यह वेदना 'अनिदा वेदना' कही जाती है। ___ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में एवम्भूत एवं अनेवम्भूत वेदना का निरूपण है। जब वेदना का वेदन कर्मबंध के अनुरूप होता है तो उसे 'एवम्भूत वेदना' कहते हैं तथा जब कर्मबंध से परिवर्तित रूप में वेदना का वेदन होता है तो उसे अनेवम्भूत वेदना कहा जाता है। पृथ्वीकायिक आदि जीवों को भी वेदना का अनुभव होता है। आक्रान्त किये जाने पर उन्हें अनिष्ट वेदना का अनुभव होता है।
एकेन्द्रियादि जीवों में वेदना का प्रतिपादन जीव-रक्षा एवं पर्यावरण की दृष्टि से बड़ा महत्त्व रखता है। संसारस्थ प्राणी कभी. सुखरूप वेदना का वेदन करते हैं तथा कभी दुःखरूप वेदना का वेदन करते हैं, इसलिए कोई भी प्राणी हिंस्य नहीं है।
वेदना एवं निर्जरा में भेद है। वेदना कर्म की होती है तथा निर्जरा नोकर्म की होती है। वेदना का समय भिन्न होता है एवं निर्जरा का समय भिन्न होता है। वेदना कर्म के उदय में आने पर होती है तथा फल दे दिये जाने पर नोकर्म की निर्जरा होती है। गति और उसके प्रकार ___गति' शब्द गमन का वाचक है। सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक आदिग्रन्थों में गति का लक्षण इस प्रकार दिया गया है-“देशाद् देशान्तरप्राप्तिहेतुर्गतिः।" अर्थात् एक स्थान से दूसरे स्थान को प्राप्त करने का जो हेतु या कारण है उसे गति कहते हैं। वस्तुतः गति तो क्रिया की बोधक होती है, किन्तु उपचार से गति के कारण जो अवस्था प्राप्त होती है उसे भी गति कह दिया जाता है। नरकगति आदि को गति इसी दृष्टि से कहा गया है।
गति-क्रिया जीव एवं पुद्गल द्रव्यों में पायी जाती है, शेष चार द्रव्यों में नहीं। ये दो द्रव्य ही एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर गमन करते हैं। षड्द्रव्यों में धर्म, अधर्म एवं आकाश तो लोकव्यापी हैं, अतः इनमें कोई गति-क्रिया नहीं होती है। काल अप्रदेशी है, इसलिए उसमें भी गति सम्भव नहीं। इसलिए जीव एवं पुद्गल में ही गति-क्रिया सम्भव है। स्थानांगसूत्र में गति आठ प्रकार की निरूपित है, यथा(१) नरकगति, (२) तिर्यञ्चगति, (३) मनुष्यगति, (४) देवगति, (५) सिद्धगति, (६) गुरुगति, (७) प्रणोदनगति और (८) प्राग्भारगति। इनमें से प्रारम्भ की पाँच गतियाँ जीव से सम्बद्ध हैं तथा अन्तिम तीन गतियाँ पुद्गल में उपलब्ध होती हैं। इनमें परमाणु की स्वाभाविक गति को गुरुगति कहा जाता है। प्रेरित करने पर जो गति होती है वह प्रणोदनगति है। यह जीव एवं पुद्गल दोनों में सम्भव है। प्राग्भारगति एक प्रकार से वजन के बढ़ने पर नीचे झुकने की गति अथवा गुरुत्वाकर्षण की गति का बोधक है। यह भी पुद्गल में पायी जाती है। प्रारम्भिक पाँच गतियों में चार संसारी जीवों में होती हैं तथा पाँचवीं गति मुक्त-जीव में एक ही बार होती है।
संसारी जीवों की चार गतियाँ प्रसिद्ध हैं-(१) नरकगति, (२) तिर्यञ्चगति, (३) मनुष्यगति और (४) देवगति। व्युत्क्रान्ति ___ जीव एक स्थान से उद्वर्तन (मरण) करके दूसरे स्थान पर जन्म ग्रहण करता है उसे व्युत्क्रान्ति कहा जा सकता है। व्युत्क्रान्ति शब्द ऐसी विशिष्ट मृत्यु के लिए प्रयुक्त है जिसके अनन्तर जीव जन्म ग्रहण करता है। इस प्रकार व्युत्क्रान्ति के अन्तर्गत उपपात, जन्म, उद्वर्तन, च्यवन, मरण आदि का तो समावेश होता ही है, किन्तु इससे सम्बद्ध विग्रहगति, सान्तर-निरन्तर उपपात, सान्तर-निरन्तर उद्वर्तन, उपपात विरह, उद्वर्तन विरह आदि अनेक तथ्यों का भी अन्तर्भाव हो जाता है। गति-आगति का चिन्तन भी इस प्रकार व्युत्क्रान्ति का ही एक अंग है। सारांश में कहें तो मरण से लेकर जन्म ग्रहण करने तक का समस्त क्रियाकलाप व्युत्क्रान्ति का क्षेत्र है।
द्रव्यानुयोग के व्युत्क्रान्ति अध्ययन में व्यापक रूप से उपर्युक्त विषय-वस्तु का विवेचन हुआ है। गर्भ ___ गर्भ अध्ययन में उन जीवों के जन्म का विवेचन है जो गर्भ से जन्म ग्रहण करते हैं। इसके साथ ही विग्रहगति एवं मरण का भी विशद वर्णन हुआ है। यह अध्ययन व्युत्क्रान्ति अध्ययन का पूरक है।
जन्म तीन प्रकार का होता है-(१) सम्मूर्छिम-जन्म, (२) गर्भ-जन्म और (३) उपपात-जन्म। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रियादि जीवों का जन्म सम्मूर्छिम-जन्म कहलाता है। देवों एवं नैरयिकों का जन्म बिना माता-पिता के संयोग के होने से उपपात-जन्म कहलाता है। मनुष्य, पशु, पक्षी आदि कुछ जीव ऐसे हैं जिनका जन्म गर्भ से होता है। चौबीस दण्डकों में मात्र दो दण्डकों के जीवों का जन्म गर्भ से होता है। वे दण्डक हैं(१) मनुष्य और (२) पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च। नरक, दस भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी एवं वैमानिक देवों का अर्थात् १४ दण्डकों के जीवों का जन्म उपपात-जन्म होता है। शेष ८ दण्डकों (पाँच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय) का जन्म सम्मूर्छिम जन्म होता है। मनुष्य एवं तिर्यञ्च पंचेन्द्रियों में भी कुछ जीव सम्मूर्छिम जन्म से उत्पन्न होते हैं।
गर्भगत जीव के शरीर में माता के तीन अंग होते हैं-(१) माँस, (२) शोणित और (३) मस्तिष्क। पिता के भी तीन अंग होते हैं
१. गतियों के सम्बन्ध में विशेष विवेचन हेतु गति, नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति एवं देवगति अध्ययन (द्रव्यानुयोग, भाग २) एवं उनके आमुख
द्रष्टव्य हैं।