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________________ २०३६ उ. अणाणुपुब्बी-एयाए चेव एगादियाए एगुत्तरियाए दसगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नब्मासो दुरूवूणो। द्रव्यानुयोग-(३) उ. एक से लेकर दस पर्यन्त एक-एक की वृद्धि करके श्रेणी रूप में स्थापित संख्या का परस्पर गुणाकार करने से प्राप्त राशि में से प्रथम और अन्तिम भंग को कम करने पर शेष रहे भंग अनानुपूर्वी है। यह अनानुपूर्वी है। यह समाचारी आनुपूर्वी है। -अणु. सु.२०६ से तं अणाणुपुवी। से तं सामायाराणुपव्वी। भाग २, पृ.५५८ वणीमगपगारासूत्र ९०५ (क) पंच वणीमगा पण्णत्ता,तं जहा१. अतिहिवणीमगे, वनीपक के प्रकार २. किवणवणीमगे, ३. माहणवणीमगे, ४. साणवणीमगे, वनीपक-याचक पाँच प्रकार के कहे गए हैं, यथा१. अतिथिवनीपक-अतिथिदान की प्रशंसा कर भोजन माँगने वाला। २. कृपणवनीपक-कृपणदान की प्रशंसा कर भोजन माँगने वाला। ३. माहनवनीपक-माहणदान की प्रशंसा कर भोजन माँगने वाला। ४. श्ववनीपक-कुत्ते आदि पशुओं के दान की प्रशंसा कर भोजन माँगने वाला। ५. श्रमणवनीपक-श्रमणदान की प्रशंसा कर भोजन माँगने वाला। चारण मुनियों की तिरछी गति प्रवृत्ति का प्ररूपण ५. समणवणीमगे। -ठाणं अ.५,उ.३,सु.४५४ भाग २, पृ.३६२ चारणमुणिणां तिरियगई पवत्ति परूवणंसूत्र ७२५ (ख) इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ साइरेगाइं सत्तरस जोयणसहस्साई उड्ढं उप्पइत्ता तओ पच्छा चारणाणं तिरयं गई पवत्तइ। -सम.सम.१७,सु.६ भाग २, पृ.३८५ छउमत्थ केवलीहिं उदिण्ण परिसहोवसग्ग सहण हेउ परूवणंसूत्र ७७६ पंचहिं ठाणेहिं छउमत्थे णं उदिण्णे परिस्सहोवसग्गे सम्म सहेज्जा, खमेज्जा, तितिक्वेज्जा, अहियासेज्जा,तं जहा १. उदिण्णकम्मे खलु अयं पुरिसे उम्मत्तगभूए, तेण मे एस पुरिसे अक्कोसइ वा, अवहसइ वा, णिच्छोडेइ वा, णिभंछेइ वा, बंधेइ वा, रूभइ वा, छविच्छेयं करेइ वा, पमारं वा, णेइ उछवेइ वा, वत्थं वा, पडिग्गहं वा, कंबलं वा, पायपुंछणमच्छिंदइ वा, विच्छिंदइ वा, भिंदइ वा, अवहरइवा। इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुसमरमणीय भूमि-भाग से कुछ अधिक सत्तरह हजार योजन ऊपर उड़कर चारण (जंघाचारण तथा विद्याचारण) मुनि (रुचक आदि द्वीपों में जाने के लिए) तिरछी गति करते हैं। छद्मस्थ और केवलियों द्वारा उदित परिषहोपों के सहन करने के हेतुओं का प्ररूपण पाँच स्थानों से छद्मस्थ उत्पन्न परीषहों तथा उपसर्गों को सम्यक प्रकार से सहता है, क्षांति रखता है, तितिक्षा रखता है और उनसे प्रभावित नहीं होता है, यथा१. यह पुरुष उदीर्णकर्मा है, इसलिये यह उन्मत्त होकर मुझ पर आक्रोश करता है, मुझे गाली देता है, मेरा उपहास करता है, मुझे बाहर निकालने की धमकियाँ देता है, मेरी भर्त्सना करता है, मुझे बाँधता है, रोकता है, अंगविच्छेद करता है, मूर्छित करता है, उद्वेजित करता है, वस्त्र, पात्र, कंबल, पादप्रोंञ्छन आदि का आच्छेदन करता है, विच्छेदन करता है, भेदन करता है और अपहरण करता है। २. यह पुरुष यक्षाविष्ट है, इसलिए यह मुझ पर आक्रोश करता है यावत् अपहरण करता है। ३. इस भव में मेरे वेदनीय कर्म का उदय हो गया है, इसलिए यह पुरुष मुझ पर आक्रोश करता है यावत् अपहरण करता है। ४. यदि मैं इन्हें सम्यक् प्रकार से सहन नहीं करूँगा, क्षान्ति नहीं रलूँगा, तितिक्षा नहीं रलूँगा और उनसे प्रभावित होऊँगा तो मुझे क्या होगा? २. जक्वाइढे खलु अयं पुरिसे तेण मे एस पुरिसे अक्कोसइ वा जाव अवहरइवा। ३. ममं च णं तब्भववेयणिज्जे कम्मे उदिण्णे भवइ, तेण मे एस पुरिसे अक्कोसइ वा जाव अवहरइ वा। ४. ममं च णं सम्ममसहामाणस्स अखममाणस्स अतितिक्खमाणस्स अणहियासमाणस्स किं मण्णे कज्जइ?
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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