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________________ (५) पद्मलेश्या और (६) शुक्ललेश्या। इनमें से प्रथम तीन लेश्याएँ अधर्म लेश्याएँ हैं तथा तेजो, पद्म एवं शुक्ल ये तीन लेश्याएँ धर्म लेश्याएँ हैं। अधर्म लेश्याएँ दुर्गतिगामिनी, संक्लिष्ट, अमनोज्ञ, अविशुद्ध, अप्रशस्त और शीत-रूक्ष स्पर्श वाली हैं तथा धर्म लेश्याएँ सुगतिगामिनी, असंक्लिष्ट, मनोज्ञ, विशुद्ध, प्रशस्त और स्निग्ध-उष्ण स्पर्श वाली हैं। ये छहों लेश्याएँ उत्तरोत्तर शुभ हैं। वर्ण की अपेक्षा कृष्णलेश्या में काला वर्ण, नीललेश्या में नीला वर्ण, कापोतलेश्या में कबूतरी वर्ण, तेजोलेश्या में लाल वर्ण, पद्मलेश्या में पीला वर्ण और शुक्ललेश्या में श्वेत वर्ण होता है। रस की अपेक्षा कृष्णलेश्या में कड़वा, नीललेश्या में तीखा, कापोतलेश्या में कसैला, तेजोलेश्या में खटमीठा, पद्मलेश्या में कसैला-मीठा और शुक्ललेश्या में मधुर रस होता है। गंध की अपेक्षा कृष्ण, नील व कापोतलेश्याएँ दुर्गन्धयुक्त हैं तथा तेजो, पद्म व शुक्ललेश्याएँ सुगन्धयुक्त हैं। स्पर्श की अपेक्षा कृष्ण, नील व कापोतलेश्याएँ कर्कश स्पर्शयुक्त हैं तथा तेजो, पद्म व शुक्ललेश्याएँ कोमल स्पर्शयुक्त हैं। प्रदेश की अपेक्षा कृष्ण से शुक्ललेश्या तक सभी लेश्याओं में अनन्त प्रदेश हैं। वर्गणा की अपेक्षा प्रत्येक लेश्या में अनन्त वर्गणाएँ हैं। प्रत्येक लेश्या असंख्यात आकाश प्रदेशों में है। यह वर्णन द्रव्यलेश्या के अनुसार है। भावलेश्या की दृष्टि से कृष्णलेश्या का लक्षण देते हुए कहा गया है कि जो जीव पाँच आसवों में प्रवृत्त है, तीन गुप्तियों से अगुप्त है, षट्कायिक जीवों के प्रति अविरत है, महाआरम्भ में परिणत है, क्षुद्र एवं साहसी है, निःशंक परिणाम वाला, नृशंस एवं अजितेन्द्रिय है वह कृष्णलेश्या में परिणत होता है। ईर्ष्यालु, असहिष्णु, अतपस्वी, अज्ञानी, मायावी, निर्लज्ज, विषयासक्त, द्वेषी, शठ, प्रमादी, रसलोलुप, आरम्भ से अविरत, क्षुद्र एवं दुःसाहसी जीव नीललेश्या में परिणत होता है। जो वाणी से वक्र, आचार से वक्र, कपटी, सरलता से रहित, अपने दोषों को छिपाने वाला, औपधिक मिथ्यादृष्टि, अनार्य, दुष्टवादी, चोर, मत्सरी आदि होता है वह कापोतलेश्या में परिणत होता है। ___ जो नम्र, अचपल, मायारहित, अकुतूहली, विनयशील, दान्त, योग एवं उपधान (तप) युक्त है, प्रियधर्मी, दृढ़धर्मी, पापभीरु एवं हितैषी है वह तेजोलेश्या में परिणत होता है। जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ अत्यन्त पतले हैं, जो प्रशान्तचित्त है, आत्मा का दमन करता है, योग एवं उपधानयुक्त है, अल्पभाषी, उपशान्त और जितेन्द्रिय है, वह पद्मलेश्या में परिणत होता है। जो आर्त और रौद्रध्यानों का त्याग करके धर्म एवं शुक्लध्यान में लीन है, प्रशान्तचित्त और दान्त है, पाँच समितियों से समित और तीन गुप्तियों से गुप्त एवं जितेन्द्रिय है, वह शुक्ललेश्या में परिणत होता है। लेश्या के सम्बन्ध में अन्य जानने योग्य बिन्दु निम्न प्रकार हैं(१) जीव जिस लेश्या,के द्रव्यों को ग्रहण करके काल करता है वह उसी लेश्या वाले जीवों में उत्पन्न होता है। (२) पौद्गलिक होकर भी लेश्या आठ कर्मों की उत्तर प्रकृतियों में कहीं भी समाविष्ट नहीं होती है। इसका तात्पर्य है कि वह कर्मरूप नहीं है। किन्तु २१ औदयिकभावों में गति एवं कषाय के साथ लेश्या की भी गणना की गई है। औदयिकभावरूप होने से लेश्या का कर्म-परिणाम के साथ भी सम्बन्ध जुड़ जाता है। कषायोदय से अनुरंजित मानने पर लेश्या को चारित्रमोहकर्म के साथ तथा योग से परिणत मानने पर नामकर्म के साथ सम्बद्ध किया जा सकता है। किन्तु यह ज्ञातव्य है कि कषाय के अभाव में भी १२वें एवं १३वें गुणस्थान में शुक्ललेश्या पायी जाती है। इससे सिद्ध होता है कि लेश्या का सम्बन्ध कषाय से नहीं है, योग से ही है। (३) पहले से छठे गुणस्थान तक छहों लेश्याएँ होती हैं। सातवें गुणस्थान में तेजो, पद्म व शुक्ललेश्याएँ होती हैं, जबकि आठवें से तेरहवें गुणस्थान तक मात्र शुक्ललेश्या होती है। (४) एक लेश्या अन्य लेश्या को प्राप्त होकर उसके वर्णादि में परिणमन कर सकती है, किन्तु आकार भावमात्रा, प्रतिभाग भावमात्रा की अपेक्षा परिणमन नहीं होता है। (५) नैरयिक जीवों में समुच्चय से कृष्ण, नील एवं कापोतलेश्याएँ होती हैं। भवनपति, वाणव्यन्तर, पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय में तेजोलेश्या को मिलाकर चार लेश्याएँ हैं। तेजस्काय, वायुकाय और विकलेन्द्रिय जीवों में कृष्ण से कापोत तक तीन लेश्याएँ हैं। वैमानिक देवों में तेजो, पद्म व शुक्ल ये तीन लेश्याएँ हैं। तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय और मनुष्य में छहों लेश्याएँ हैं। ज्योतिषी देवों में एकमात्र तेजोलेश्या है। आधुनिक व्याख्याकार लेश्या को आभामण्डल का प्रमुख कारण मानते हैं। व्यक्ति का आभामण्डल (aura) उसकी लेश्याओं का परिचायक होता है। क्रिया साधारणतः हम किसी कार्य को सम्पन्न करने के लिए जो प्रवृत्ति करते हैं, उसे क्रिया कहते हैं। वह क्रिया जीव में भी हो सकती है और अजीव में भी, किन्तु जैनदर्शन की पारिभाषिक 'क्रिया' का सम्बन्ध जीव से है। जब तक जीव में मन, वचन एवं काया का योग प्राप्त है तब तक ही उसमें क्रिया मानी जाती है। जब जीव अयोगी अवस्था अर्थात् शैलेशी अवस्था को अथवा सिद्ध अवस्था को प्राप्त कर लेता है तो वह अक्रिय हो जाता है। इसका तात्पर्य है कि बिना योग के क्रिया नहीं होती है। क्रिया का कारण अथवा माध्यम योग है। (४१)
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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