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________________ परिशिष्ट : ३ चरणानुयोग २०३३ चरणानुयोगप्रकीर्णक अवशेष पाठों का संकलन (संबंधित विषय के पृष्ठ व सूत्रांक अंकित हैं) भाग १, पृ.३० अणगार धर्म का प्ररूपणअणगार धम्म परूवणंसूत्र ३७ तमेव धम्म दुविहं आइक्वइ, तं जहा-१. अगारधम्म च, भगवान ने धर्म दो प्रकार का कहा है, यथा-१. अगार धर्म, २.अणगारधम्मच। २.अनगार धर्म। अणगारधम्मो ताव इह खलु सव्वओ सव्वत्ताए मुंडे भवित्ता अनगार धर्म का साधक सर्वतः सर्वात्मभाव से सावद्यकार्यों का अगाराओ अणगारियं पव्वइयस्स। परित्याग करता हुआ मुंडित होकर गृहवास से अनगार अवस्था में प्रव्रजित होता है। सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, मुसावाय-अदिण्णादाण- हे आयुष्मन् ! वह सम्पूर्णतः प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मेहुण-परिग्गह राईभोयणाओ वेरमणं, अयमाउसो! मैथुन, परिग्रह तथा रात्रि भोजन से विरत होता है। अणगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते, एयस्स सिक्वाए उवट्ठिए णिग्गंथे वा यह अणगारों के लिए आचरणीय धर्म कहा है, इस धर्म की शिक्षा णिग्गंथी वा विहरमाणे आणाए आराहए भवइ। -उव.सु.३७ और आचरण में उपस्थित निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थी इसका पालन करते भाग १, पृ.२०५ हुए आज्ञा के आराधक होते हैं। ओहेण समण चरणविही परूवणं सामान्यतःश्रमण चरणविधि का प्ररूपणसूत्र ३०३ रागद्दोसे य दो पावे, पावकम्मपवत्तणे। राग और द्वेष ये दोनों पापकर्म प्रवृत्ति के कारण होने से पापरूप हैं। जे भिक्खू रुम्भई निच्चं, से न अच्छइ मण्डले ॥३॥ जो भिक्षु इनका सदा निरोध करता है, वह मंडल में अर्थात् जन्म मरण रूप संसार में नहीं रहता ॥३॥ दण्डाणं गारवाणं च, सल्लाणं च तियं तियं। तीन दण्डों, तीन गारवों और तीन शल्यों का जो भिक्षु सदैव त्याग जे भिक्खू चयई निच्चं, से न अच्छइ मण्डले ॥४॥ करता है, वह संसार में नहीं रहता ॥४॥ दिव्वे य जे उवसग्गे, तहा तेरिच्छ माणुसे। दिव्य (देवता सम्बन्धी), मानुष (मनुष्य सम्बन्धी) और तिर्यञ्च जे भिक्खू सहई निच्चं,से न अच्छइ मण्डले ॥५॥ सम्बन्धी उपसर्गों को जो भिक्षु सदा (समभाव से) सहन करता है, वह संसार में नहीं रहता ॥५॥ विगहा कसाय सन्नाणं, झाणाणं च दुयं तहा। जो भिक्षु (चार) विकथाओं का, कषायों का, संज्ञाओं का तथा आत जे भिक्खू वज्जई निच्चं, से न अच्छइ मण्डले ॥६॥ और रौद्र दो ध्यानों का सदा तर्जन (त्याग) करता है, वह संसार में नहीं रहता ॥६॥ वएसु इन्दियत्थेसु, समिईसु किरियासु य। जो भिक्षु व्रतों (पाँच महाव्रतों) और समितियों के पालन में तथा जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मण्डले ॥७॥ इन्द्रियविषयों और (पाँच) क्रियाओं के परिहार में सदा यत्नशील रहता है, वह संसार में नहीं रहता ॥७॥ लेसासु छसु काएसु, छक्के आहारकारणे। जो भिक्षु छह लेश्याओं, छह कायों तथा आहार के छह कारणों में जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मण्डले ॥८॥ सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता ॥८॥ पिण्डोग्गहपडिमासु, भयट्ठाणेसु सत्तसु। जो भिक्षु (सात) पिण्डावग्रहों में, आहारग्रहण की सात प्रतिमाओं में जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मण्डले ॥९॥ और सात भयस्थानों में सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता॥९॥ मयेसु बम्भगुत्तीसु, भिक्खुधम्ममि दसविहे। जो भिक्षु (आठ) मदस्थानों में, (नौ) ब्रह्मचर्य की गुप्तियों में और जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मण्डले ॥१०॥ दस प्रकार के श्रमण धर्म में सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता ॥१०॥
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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