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________________ २०१६ 7 पहकर परिलित-मत्त छप्पय कुसुमासवलोलमहुर गुमगुमंतगुजतदेसभागाओ, अब्धितरपुष्फ फलाओ बाहिरपत्तोच्छण्णओ, पत्तेहि य पुप्फेहि य ओच्छन्न वलिच्छताओ साउफलाओ, निरोपयाओ, अकंटयाओ, गाणाविह गुच्छ गुम्ममंडवग सोहियाओ, विचित्तसुहकेउभूयाओ यावी क्खरिणी दीहियास निवेसिय-रम्मजाल हरयाओ पिडिम-णीहारिम-सुगंधि-सुह-सुरभि मणहरं च महयागंधद्धाणि मुयंताओ, सव्वोउयपुफुफलसमिद्धाओ सुरम्माओ पासाईयाओ दरिसणिज्जाओ अभिरूवाओ पडिरूवाओ । तीसे णं समाए भरहे वासे तत्थ तत्थ तहिं तहिं मत्तगा णामं दुमगणा पण्णत्ता । एवं जाव अणिगणा णामं दुमगणा पण्णत्ता । प. तीसे णं भंते ! समाए भरहे वासे मणुआणं केरिसए आयांरभाव पडोयारे पण्णत्ते ? उ. गोयमा ! ते णं मणुआ सुपइट्ठियकुम्म चारूचलणा जाव पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा । प. तेसि णं भंते! मणुआणं केवइकालस्स आहारट्ठे समुप्पज्जइ ? उ. गोयमा ! अट्ठमभत्तस्स आहारट्ठे समुप्पज्जइ. पुढवीपुष्पफलाहाराणं ते मणुआ पण्णत्ता, समणाउसो ! प. तीसे में भंते! समाए भरहे वासे मणुआणं केवइअं काल टिई पण्णत्ता ? उ. गोवमा जहण्णेणं देसूणाई तिष्णि पलिओदमाई, उक्कोसेणं तिण्णि पलि ओवमाई । प. तीसे णं भंते! समाए भरहे वासे मणुआणं सरीरा केवइअं उच्चत्तेणं पण्णत्ता ? उ. गोयमा ! जहण्णेणं देसूणाई तिण्णि गाउआई, उक्कोसेणं तिण्णि गाउआई। प. ते णं भंते! मणुआ किं संघयणी पण्णत्ता ? उ. गोयमा ! बहरोसपणारायसंघयणी पण्णत्ता। प तेसि णं भंते! मणुआणं सरीरा किं संठिया पण्णत्ता ? उ. गोयमा ! समचउरंससंठाणसंठिआ पण्णत्ता, तेसि णं मणुआणं बेछप्पण्णा पिट्ठकरंडयसया पण्णत्ता, समणाउसो ! प. ते णं भंते! मणुआ कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छन्ति ? कहिं उववज्जति ? उ. गोयमा ! छम्मासावसेसाउ गुअगं पसवति, एगूणपण्णं राइंदिआई सारक्खंति, संगोवेंति, संगोवेत्ता, कासित्ता, छीइत्ता, जंभाइत्ता, अक्किट्ठा अव्वहिआ अपरिआविआ द्रव्यानुयोग - (३) से सदा प्रतिध्वनित रहती थीं। उन वनराजियों के प्रदेश कुसुमों का आसव पीने को उत्सुक, मधुर गुंजन करते हुए भ्रमरियों के समूह से परिवृत मत्त भ्रमरों की मधुर ध्वनि से मुखरित थे। वे वनराजियाँ भीतर पुष्पों और फलों से तथा बाहर पत्तों से आच्छन्न थीं। पत्र और पुष्पों रूपी छत्रों से वे आच्छादित थीं । वहाँ के फल स्वादिष्ट थे। वहाँ का वातावरण निरोग था । वे कौटों से रहित थीं। वे तरह-तरह के फूलों के गुच्छों, लताओं के गुल्मों तथा मंडपों से शोभित थीं। वे अनेक प्रकार की सुन्दर ध्वजा से सुशोभित मालूम होती थीं जहाँ सुघड़ता से निर्मित जाली झरोखों से युक्त वापिकाएँ, पुष्करणियाँ और दीर्घकाएँ थीं । वनराजियाँ ऐसी तृप्तिप्रद सुगन्ध छोड़ती थीं जो बाहर निकलकर पूँजीभूत होकर बहुत दूर फैल जाती थी और बड़ी मनोहर थी। वे वनराजियाँ सब ऋतुओं के पुष्पों और फलों से समृद्ध थीं। वे सुरम्य, प्रासादिक, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप थीं। उस समय भरत क्षेत्र में जहाँ-तहाँ मत्तांग नामक कल्पवृक्ष समूह होते थे। इसी प्रकार अनग्न पर्यन्त दस प्रकार के कल्पवृक्ष समूह कहे गए हैं। प्र. भंते! उस समय भरत वर्ष के मनुष्यों का आकार भाव स्वरूप कैसा कहा गया है ? उ. गौतम ! उन मनुष्यों के चरण सुन्दर आकृति वाले कवे की पीठ की तरह उठे हुए मनोज्ञ यावत् प्रासादिक दर्शनीय अभिरूप प्रतिरूप होते हैं। प्र. भंते! उन मनुष्यों को कितने समय बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है ? उ. हे आयुष्मन् ! श्रमण गौतम ! उनको तीन दिन के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। वे मनुष्य पृथ्वी, पुष्प और फल का आहार करने वाले कहे गए हैं। प्र. भंते! उस समय भरत क्षेत्र में मनुष्यों का आयुष्य कितने काल का कहा गया है ? उ. गौतम ! जघन्य देशून तीन पल्योपम का और पल्योपम का होता है। उत्कृष्ट तीन प्र. भंते! उस समय भरत क्षेत्र में मनुष्यों के शरीर कितने ऊँचे कहे गए है ? उ. गौतम ! उनके शरीर जघन्यतः देशून तीन गव्यूति तथा उत्कृष्टतः तीन गव्यूति ऊँचे होते हैं। प्र. भंते! उन मनुष्यों का संहनन कैसा कहा गया है ? उ. गौतम ! वे वज्र ऋषभ नाराच संहनन वाले होते हैं। प्र. भंते! उन मनुष्यों का शरीर संस्थान कैसा कहा गया है ? उ. हे आयुष्मन् ! श्रमण गौतम ! उनका समचौरस संस्थान कहा गया है। उनके पसलियों की दो सौ छप्पन हड्डियाँ होती हैं। प्र. भंते! वे मनुष्य कालमास में काल करके कहाँ जाते हैं ? कहाँ उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! जब उनका आयुष्य छह मास शेष रहता है तब वे एक युगल (एक बच्चा - एक बच्ची ) को उत्पन्न करते हैं, उनकी पचास दिन-रात सार सम्हाल करते हैं, पालन-पोषण करते हैं,
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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