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________________ द्रव्यानुयोग-(३) भवन कहे गए हैं। वे भवन बाहर से गोल भीतर से चौरस हैं. इत्यादि भवनों का वर्णन कहना चाहिए। वहाँ देवराज देवेन्द्र शक्र के अत्यन्त ऋद्धिसम्पन्न बलवान्, यशस्वी, सौख्यसम्पन्न और पल्योपम की स्थिति वाले सोम, यम, वरुण एवं वैश्रमण संज्ञक आभियोगिक देव निवास करते हैं। जंबूद्वीप में विद्याधरादि श्रेणियों की संख्या का प्ररूपण प्र. भंते ! जंबूद्वीप द्वीप में कितनी विद्याधर श्रेणियाँ और कितनी आभियोगिक श्रेणियाँ कही गई हैं ? उ. गौतम ! जंबूद्वीप द्वीप में अड़सठ विद्याधर श्रेणियाँ और अड़सठ आभियोगिक श्रेणियाँ कही गई हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर जंबूद्वीप द्वीप में एक सौ छत्तीस श्रेणियाँ होती हैं ऐसा कहा गया है। निषध-नीलवंत पर्वतों के समीप के वक्षस्कार पर्वतों की ऊँचाई और गहराई का प्ररूपण ( २००० । भवणा पण्णत्ता। ते णं भवणा बाहिं वट्टा अंतो चउरंसा वण्णओ। तत्थ णं सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो सोम जम वरूण वेसमणकाइआ बहवे आभिओगा देवा महिड्ढिआ, महज्जुईआ, महाबला, महायसा, महासोक्खा पलिओवमट्टिईया परिवसति। -जंबू. वक्ख.१.सु. १३-१६ जंबुद्दीवे विज्जाहराइ सेढीणं संखा परूवणंसूत्र ४०६ (ग) प. जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइआ विज्जाहरसेढीओ? केवइआ आभिओगसेढीओ पण्णत्ताओ? उ. गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे अट्ठसट्ठी विज्जाहर सेढीओ, अट्ठसट्ठी आभिओगसेढीओ पण्णत्ताओ। एवामेव सपुव्वावरेणं जंबुद्दीवे दीवे छत्तीसे सेढीसए भवंतीतिमक्खायं। -जंबू. वक्ख.६, सु.१५८ पृ.२६२ णिसढ नीलवंतपव्वय समीवे वक्खार पव्वयाणं उच्चत्तं उव्वेहे य परूवणंसूत्र ४१२ (ख) सव्वेवि णं वक्वारपव्वया णिसढ-नीलवंत-वासहर पव्वयंतेणं चत्तारि-चत्तारि जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं, चत्तारि-चत्तारि गाउयसयाइं उव्वेहेणं पण्णत्ता। -सम.सु. १०६ (३) पृ.२७६ वासहर पव्वयाणं कूडेहितो समधरणितलस्स अंतरंसूत्र ४४८(ख) चुल्लहिमवंतकूडस्स णं उवरिल्लाओ चरिमंताओ चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स समे धरणितले, एस णं छ जोयणसयाई अबाहाए अंतरे एण्णत्ते। एवं सिहरीकूडस्स वि। -सम. सु. १०९(२) महाहिमवंतकूडस्स णं उवरिल्लाओ चरिमंताओ महाहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स समे धरणितले, एस णं सत्त जोयणसयाई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। एवं रूप्पिकूडस्स वि। -सम.सु. ११०(५) निसहकूडस्स णं उवरिल्लाओ सिहरतलाओ णिसढस्स वासहर पव्वयस्स समे धरणितले, एस णं नव जोयणसयाई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। एवं नीलवंतकूडस्स वि। -सम.सु. ११२(५) पृ.२८२ हरिहरिस्सहकूडाणं बलकूडस्स य उच्चत्ताइ परूवणंसूत्र ४५८ (ख) सव्वेवि णं हरिहरिस्सहकूडा वक्खारकूडवज्जा दस-दस जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं, मूले दस जोयणसयाई विक्खंभेणं पण्णत्ता। सभी वक्षस्कार पर्वत निषध और नीलवंत वर्षधर पर्वतों के पास चार सौ-चार सौ योजन ऊँचे तथा चार सौ-चार सौ गव्यूति गहरे कहे गए हैं। वर्षधर पर्वतों के कूटों से समभूतल का अंतर चुल्लहिमवंतकूट के उपरितन चरमान्त से चुल्लहिमवंत वर्षधर पर्वत के समभूतल का अबाधाअन्तर छह सौ योजन का कहा गया है। इसी प्रकार शिखरीकूट का भी अंतर जानना चाहिये। महाहिमवंतकूट के उपरितन चरमान्त से महाहिमवंत वर्षधर पर्वत के समभूतल का अबाधा अन्तर सात सौ योजन का कहा गया है। इसी प्रकार रुक्मीकूट का भी अंतर जानना चाहिए। निषधकूट के उपरितन चरमान्त से निषध वर्षधर पर्वत के समभूतल का अबाधा अन्तर नौ सौ योजन का कहा गया है। इसी प्रकार नीलवंतकूट का भी अंतर जानना चाहिए। हरिहरिस्सहकूटों और बलकूट की ऊँचाई आदि का प्ररूपण वक्षस्कारकूटों को छोड़कर सभी हरिकूट और हरिस्सहकूट हजार-हजार योजन ऊँचे और मूल में हजार-हजार योजन चौड़े कहे गए हैं।
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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