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________________ परिशिष्ट : ३ धर्मकथानुयोग अन्तोहियय-संभूया,लया चिट्ठइ गोयमा। फलेइ विसभवीणि, सा उ उद्धरिया कहं ॥४५॥ तं लयं सव्वओ छित्ता उद्धरित्ता समूलियं। विहरामि जहानायं मुक्को मि विमभक्खणं ॥४६॥ लया य इह का वुत्ता? केसी गोयममव्ववी। केसिमेवं वुवंतं तु गोयमो इणमव्ववी॥४७॥ भवतण्हा लया वुत्ता, भीमा भीमफलोदया। तमुरित्तु जहानायं, विहरामि महामुणी ॥४८॥ माहु गोयम ! पन्ना ते छिन्नो मे मंस ओ इमो। अन्नो वि संसओ मझं,तं मे कहसु गोयमा ॥४९॥ ६. संपजलिग घोरा. अग्गी चिट्ठइ गोयमा। जे इहन्ति सरीरत्था, कह वि-झाविया तुमे ॥५०॥ महामेहप्पसूयाओ. गिज्झ वारि जलुत्तमं। सिंचामि सययं देहं, सित्ता नो व डहन्ति मे ॥५१॥ १९८५ ५. हे गौतम ! हृदय के अन्दर उत्पन्न एक लता फैल रही है, जो भक्षण करने पर विष तुल्य फल देती है। आपने उस (विषबेल) को कैसे उखाड़ा?॥४५॥ (गणधर गौतम-) उस लता को सर्वथा काटकर एवं जड़ से उखाड़ कर मैं नीति के अनुसार विचरण करता हूँ अतः मैं उसके विषफल को खाने से मुक्त हूँ॥४६॥ केशी ने गौतम से पूछा-“लता आप किसे कहते हैं ? केशी के इस प्रकार पूछने पर गौतम ने यह कहा-॥४७॥ (गणधर गौतम-) भवतृष्णा (सासारिक तृष्णा लालसा) को ही भयंकर लता कहा गया है उसमें भयंकर विपाक वाले फल लगते हैं। हे महामुने ! मैं उसे मूल से उखाड़कर (शास्त्रोक्त) नीति के अनुसार विचरण करता हूँ॥४८॥ (केशी कुमारश्रमण-) हे गौतम ! आपकी बुद्धि श्रेष्ठ है, आपने मेरे इस संशय को मिटाया है। एक दूसरा संशय भी मेरे मन में है, हे गौतम ! उस विषय में भी आप मुझे बताओ॥४९॥ ६. हे गौतम ! चारों ओर घोर अग्नियाँ प्रज्वलित हो रही हैं, जो शरीरधारी जीवों को जलाती रहती हैं, आपने उन्हें कैसे वुझाया ? ॥५०॥ (गणधर गौतम-)महामेघों से उत्पन्न सब जलों में से उत्तम जल लेकर मैं उसका निरन्तर सिंचन करता हूँ। इसी कारण सिंचन (शान्त) की गई अग्नियाँ मुझे नहीं जलातीं ॥५१॥ (केशी कुमारश्रमण-) वे अग्नियाँ कौन-सी हैं ? केशी ने गौतम से पूछा। यह पूछने पर गौतम ने इस प्रकार कहा-॥५२॥ (गणधर गौतम-)कषायों को अग्नि कहा गया है। श्रुत, शील और तप जल है। श्रुत रूप जलधारा से शान्त और नष्ट हुई अग्नियाँ मुझे नहीं जलातीं ॥५३॥ (केशी कुमारश्रमण-)गौतम ! आपकी प्रज्ञा प्रशस्त है। आपने मेरा यह संशय मिटा दिया, किन्तु मेरा एक और सन्देह है, उसके सम्बन्ध में भी मुझे कहें ॥५४॥ ७. यह साहसिक, भयंकर दुष्ट घोड़ा इधर-उधर चारों ओर दौड़ रहा है, हे गौतम ! आप इस पर आरूढ़ हैं, (फिर भी) वह आपको उन्मार्ग पर क्यों नहीं ले जाता ॥५५॥ (गणधर गौतम-) दौड़ते हुए उस घोड़े का मैं श्रुत रश्मि (शास्त्रज्ञानरूपी) लगाम से निग्रह करता हूँ, जिससे वह मुझे उन्मार्ग पर नहीं ले जाता अपितु सन्मार्ग पर ही ले जाता है ॥५६॥ (कशी कुमारश्रमण-) अश्व किसे कहा गया है? इस प्रकार केशी ने गौतम से पूछा, पूछने पर गौतम ने इस प्रकार कहा-- ॥५७॥ (गणधर गौतम-) मन ही वह साहसी, भयकर और दुष्ट अश्व है, उसे मैं सम्यक प्रकार से वश में करता हैं। जो धर्मशिक्षा से वह कन्थक (-उत्तम जाति के अश्व) के समान हो गया है ।।५८॥ (केशी कुमारश्रमण-) हे गौतम ! आपकी प्रज्ञा श्रेष्ठ है, आपने मेरा यह संशय दूर कर दिया (किन्तु) मेरा एक संशय और भी है, गौतम ! उसके सम्बन्ध में मुझे वताइए॥५९॥ अग्गी य इह के वुत्ता? केसी गोयममव्ववी। कसिमेवं बुवंत तु, गोयमो इणमव्ववी ॥५२॥ कसाया अग्गिणो वुत्ता. सुय-सील-तवो जल। सुयधागभिहया सन्ता, भिन्ना हुन डहन्ति मे ॥५३॥ साहु गोयम ! पन्ना ते, छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नो वि संसओ मझं,तं मे कहसु गोयमा ।।५४ ॥ ७. अयं साहसिओ भीमो. दुट्टम्सो परिधावई। जसि गोयम ! आरूढो कहं तेण न हीरसि? ॥५५॥ पधावन्तं निगिण्हामि सुयरम्मीसमाहियं। न मे गच्छड उम्मग्गं मग्गं च पडिबज्जई॥५६॥ अम्मे यइइ के वुत्ते ? केसी गोयममव्ववी। केसिमेवं बुवंतं तु गोयमो इणमव्ववी ॥५॥ मणा माहिसिआ भीमा, दुद्रुम्सो परिधावई। तं सम्म निगिहामि धमसिक्वाए कन्थगं ।।५८॥ साहु गोयम ! पन्ना ते. छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नो वि संसओ मज्झं.तं मे कहमु गोयमा! ॥५९॥
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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