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________________ १८९६ २. मंडुक्कजातिआसीविसे, ३. उरगजातिआसीविसे, ४. मणुस्सजातिआसीविसे।। प. विच्छुयजातिआसीविसस्स णं भंते ! केवइए विसए पण्णते? उ. गोयमा ! पभू णं विच्छ्यजातिआसीविसे अद्धभरहप्पमाणमेत्तं बोंदि विसेणं विसपरिणतं विसट्टमाणिं करित्तए। विसए से विसट्ठताए, णो चेव णं संपत्तीए करेंसु वा, करेंति वा, करिस्संति वा। प. मंडुक्कजातिआसीविसस्स णं भंते ! केवइए विसए पण्णत्ते? उ. गोयमा ! पभू णं मंडुक्कजातिआसीविसे भरहप्पमाणमेत्तं बोंदि विसेणं विसपरिणतं विसट्टमाणिं करित्तए। विसए से विसठ्ठताए, णो चेव णं संपत्तीए करेंसु वा, करेंति वा, करिस्संति वा। प. ३. उरगजातिआसीविसस्स णं भंते ! केवइए विसए पण्णते? उ. गोयमा ! पभू णं उरगजातिआसीविसे जंबुद्दीवपमाणमेत्तं बोंदि विसेणं विसपरिणतं विसट्टमाणिं करित्तए। द्रव्यानुयोग-(३) २. जाति-आशीविष मेंढक, ३. जाति-आशीविष सर्प, ४. जाति-आशीविष मनुष्य। प्र. १. भंते ! वृश्चिक जाति आशीविष के विष का प्रभाव कितने क्षेत्र में कहा गया है? उ. गौतम ! वृश्चिक जाति आशीविष अपने विष के प्रभाव से अर्धभरत प्रमाण शरीर को (लगभग दो सौ तिरेसठ योजन) विषपरिणत और विषैला कर सकता है। यह उसकी विषात्मक क्षमता है, परन्तु इतने क्षेत्र में उसने अपनी क्षमता का न तो कभी उपयोग किया है, न करता है और न कभी करेगा। प्र. २. भंते ! मंडुक जाति आशीविष के विष का प्रभाव कितने क्षेत्र में कहा गया है? उ. गौतम ! जाति आशीविष मंडुक अपने विष के प्रभाव से भरतप्रमाण शरीर को विषपरिणत और विषैला कर सकता है। यह उसकी विषात्मक क्षमता है, परन्तु इतने क्षेत्र में उसने अपनी क्षमता का न तो कभी उपयोग किया है, न करता है और न कभी करेगा। प्र. ३. भंते ! उरगजाति आशीविष के विष का प्रभाव कितने क्षेत्र में कहा गया है? उ. गौतम ! उरगजाति आशीविष अपने विष के प्रभाव से जम्बूद्वीप प्रमाण (लाख योजन) शरीर को विषपरिणत और विषैला कर सकता है। यह उसकी विषात्मक क्षमता है, परन्तु इतने क्षेत्र में उसने अपनी क्षमता का न तो कभी उपयोग किया है, न करता है और न कभी करेगा। प्र. ४. भंते ! मनुष्यजाति आशीविष के विषय का प्रभाव कितने क्षेत्र में कहा गया है? उ. गौतम ! मनुष्यजाति आशीविष के विष का प्रभाव मनुष्य क्षेत्रप्रमाण (पैंतालीस लाख योजन) शरीर को विषपरिणत और विषैला कर सकता है। यह उसकी विषात्मक क्षमता है, परन्तु इतने क्षेत्र में उसने अपनी क्षमता का न तो कभी उपयोग किया है, न करता है और न कभी करेगा। प्र. भंते ! यदि कर्म आशीविष है तो क्या वह १. नैरयिक कर्म आशीविष है, २. तिर्यञ्चयोनिक कर्म आशीविष है, ३. मनुष्य कर्म आशीविष है या ४. देव कर्म आशीविष है? उ. गौतम ! १. नैरयिक कर्म आशीविष नहीं है, किन्तु २. तिर्यञ्चयोनिक कर्म आशीविष है, ३. मनुष्य कर्म आशीविष है और ४. देव कर्मआशीविष है। प्र. भंते ! यदि तिर्यञ्चयोनिक कर्म आशीविष है तो क्या एकेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक कर्म आशीविष है यावत् पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक कर्म आशीविष है? विसए से विसठ्ठताए, णो चेव णं संपत्तीए करेंसु वा, करेंति वा, करिस्संति वा। प. ४. मणुस्सजातिआसीविसस्स णं भंते ! केवइए विसए पण्णते? उ. गोयमा ! पभू णं मणुस्सजातिआसीविसे समयखेत्तपमाणमेत्तं बोंदि विसेणं विसपरिणतं विसट्टमाणिं करेत्तए। विसए से विसठ्ठताए, णो चेव णं संपत्तीए करेंसु वा, करेंति वा, करिस्संति वा। प. भंते ! जइ कम्मआसीविसे किं १. नेरइयकम्मआसीविसे, २. तिरिक्खजोणियकम्मआसीविसे, ३. मणुस्सकम्मआसीविसे, ४. देवकम्मआसीविसे। उ. गोयमा ! १. नो नेरइयकम्मासीविसे, २. तिरिक्ख जोणियकम्मासीविसे वि, ३. मणुस्सकम्मासीविसे वि, ४. देवकम्मासीविसे वि। प. भंते ! जइ तिरिक्खजोणियकम्मासीविसे किं एगिदिय तिरिक्खजोणियकम्मासीविसे जाव पंचिंदियतिरिक्ख जोणियकम्मासीविसे? १. ठाणं.अ.४, उ.१, सु.३४१
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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