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________________ प्रकीर्णक : आमुख प्रकीर्णक (पइण्णय) शब्द का प्रयोग चतुःशरण, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान आदि आगमतुल्य ग्रन्थों के लिये भी किया जाता है, किन्तु यहाँ पर प्रकीर्णक शब्द का प्रयोग आगम की उस सामग्री के लिए किया गया है जिसका विभाजन द्रव्यानुयोग के अन्य अध्ययनों में नहीं किया जा सका है। इस प्रकीर्णक अध्ययन में वह विविध सामग्री संकलित है जिसका अन्यत्र वर्गीकरण नहीं किया जा सका है। ___ इस अध्ययन में मुख्यतः स्थानांग सूत्र में वर्णित विविध भेदों का संकलन है। अनुयोग, व्याख्याप्रज्ञप्ति एवं प्रज्ञापना सूत्रों से भी कुछ सामग्री संग्रहीत है। अठारह प्रकार के पाप एवं उनसे विरमण, आशीविष के प्रकार और उनके प्रभावक्षेत्र, ऋद्धि के तीन प्रकारों, विकथा के भेदोपभेदों, तुल्य के छह प्रकारों, छह प्रकार की दिशाओं, सप्तविध भयों, आयुर्वेद के आठ अंगों, रोगोत्पत्ति के नौ कारणों, नवविध पुण्यों, नौ तत्त्वों, दान के दस भेदों, दुःषम एवं सुषम काल के लक्षणों, दशविध अनन्तकों, दस प्रकार के शस्त्रों, दस प्रकार के बलों, एजना के चार प्रकारों, चलना के भेदों आदि का वर्णन इस अध्ययन का प्रमुख प्रतिपाद्य है। आशीविष के दो प्रकार कहे गए हैं-१. जाति आशीविष और २. कर्म आशीविष। जाति आशीविष के अन्तर्गत बिच्छू, मेंढक, सर्प एवं मनुष्य आशीविष को लिया गया तथा कर्म आशीविष के अन्तर्गत पर्याप्त संख्यातवर्षायुष्क गर्भज तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय, गर्भज मनुष्य एवं देवों को लिया गया। नरक में इस आशीविष का उल्लेख नहीं है। इसी प्रकार एकेन्द्रिय एवं विकलेन्द्रिय में भी यह आशीविष नहीं है। इसका तात्पर्य है कि जो जीव अधिक विकसित हैं उनमें ही यह आशीविष रहता है। ऋद्धि के तीन प्रकारों में देवों की ऋद्धि, राजाओं की ऋद्धि एवं आचार्यों की ऋद्धि का उल्लेख है। ये सभी ऋद्धियाँ भी सचित्त, अचित्त एवं मिश्र के भेद से तीन-तीन प्रकार की होती हैं। इनके अन्य विशिष्ट भेद भी होते हैं। देवों की ऋद्धि विमान, वैक्रिय रूप एवं परिचारण के रूप में, राजाओं की ऋद्धि अतियान, निर्माण एवं सेना-वाहन-कोष आदि के रूप में तथा आचार्य की ऋद्धि ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र के रूप में भी प्रतिपादित की गई है। जैन दर्शन में प्रायः धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष की चर्चा तो मिलती है, किन्तु इन्हें पुरुषार्थ चतुष्टय नहीं कहा गया है। यहाँ विनिश्चय (जानने योग्य का अर्थ) के तीन भेद बताए गए हैं-१. अर्थ, २. धर्म और ३. काम। शूरों के चार प्रकार होते हैं-१. क्षमाशूर, २. तपःशूर, ३. दानशूर और ४. युद्धशूर। चार कारणों से विद्यमान गुणों का नाश होना माना गया है। वे चार कारण हैं-१ क्रोध, २. ईर्ष्या, ३. अकृतज्ञता एवं ४. दुराग्रह। व्याधि के वात, पित्त, कफ एवं इनके सन्निपात (मिश्रण) से चार भेद होते हैं। सत्य के चार प्रकार होते हैं-१. नाम, २. स्थापना, ३. द्रव्य और ४. भाव। विकथा के चार प्रकार प्रसिद्ध हैं-१. स्त्रीकथा, २. भक्तकथा, ३. देशकथा और ४. राजकथा। इनके चार-चार उपभेदों का कथन प्रस्तुत अध्ययन में हुआ है। दण्ड के पाँच प्रकार होते हैं-१. अर्थ दण्ड, २. अनर्थ दण्ड, ३. हिंसा दण्ड, ४. अकस्मात् दण्ड एवं ५. दृष्टिविपर्यास दण्ड। निधि का अर्थ मात्र धन ही नहीं होता। निधि के पाँच प्रकार हैं-१. पुत्र निधि, २. मित्र निधि, ३. शिल्प निधि,४.धन निधि एवं ५. धान्य निधि। सुप्त मनुष्य पाँच कारणों से जाग्रत होता है-१. शब्द से, २. स्पर्श से, ३. भूख से, ४. निद्राक्षय से एवं ५. स्वप्न-दर्शन से। तुल्य का इस अध्ययन में विस्तार से निरूपण हुआ है। तुल्य छह प्रकार का कहा गया है-१.द्रव्य तुल्य, २. क्षेत्र तुल्य, ३. काल तुल्य, ४. भव तुल्य,५. भाव तुल्य एवं ६. संस्थान तुल्य। यह तुल्यता आपेक्षिक होती है। यथा एक परमाणु पुद्गल दूसरे परमाणु पुद्गल से द्रव्यतः तुल्य होता है। एक प्रदेशावगाढ़ पुद्गल दूसरे एक प्रदेशावगाढ़ पुद्गल के साथ क्षेत्रतः तुल्य है। वचन के सात विकल्प कहे गए हैं-१. आलाप, २. अनालाप, ३. उल्लाप, ४. अनुल्लाप, ५. संलाप, ६. प्रलाप एवं ७. विप्रलाप। भय के सात स्थान कहे गए हैं-१. इहलोक, २. परलोक, ३. आदान भय, ४. अकस्मात् भय, ५. आजीव भय, ६. मरण भय और ७. अश्लोक भय। दान के दस प्रकारों का उल्लेख हुआ है-१. अनुकम्पा दान, २. संग्रह दान, ३. भय दान, ४. कारुण्य दान, ५. लज्जा दान, ६. गौरव दान, ७. अधर्म दान, ८. धर्म दान, ९. करिष्यति दान (भविष्य में वह देगा, इसलिए देना) एवं १०. कृतमिति दान (उसने पहले दिया इसलिए देना)। कुछ महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं पर भी इस अध्ययन में विचार हुआ है। प्रश्न हुआ, जीव किससे भयभीत होते हैं ? भगवान ने उत्तर दिया-जीव दुःख से भयभीत होते हैं। वह दुःख भी जीवों के प्रमाद से उत्पन्न होता है। एक प्रश्न उठाया गया कि देवलोक में उत्पन्न होने वाला छद्मस्थ मनुष्य अन्त समय में क्षीण भोगी होने पर उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुष पराक्रम से विपुल भोगोपभोगों को भोगने में समर्थ है या नहीं? समाधान किया गया कि वह भोगने में समर्थ है। इसी प्रकार के अन्य प्रश्न भी इसमें हैं। प्रस्तुत द्रव्यानुयोग का यह अन्तिम अध्ययन होने से इसमें उसका उपसंहार करते हुए कहा गया इय जीवमजीवे य सोच्चा सदहिऊण य। सव्वनयाणमणुमए, रमेज्ज संजमे मुणी॥ (१८९३)
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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