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________________ १७१२ उ. गोयमा ! सिय चरिमे, सिय अचरिमे, द.२-२४ एवं निरंतरं जाव वेमाणिए। प. दं. १ नेरइया णं भंते ! फासचरिमेणं किं चरिमा, अचरिमा? उ. गोयमा ! चरिमा वि, अचरिमा वि, दं.२-२४ एवं निरंतरं जाव वेमाणिया। -पण्ण. प.१०, सु. ८०७-८२९ ३. एगत्त-पुहत्त विवक्खया जीव-चउवीसदंडएसु सिद्धेसु य जीवाइ चोद्दसदारेहिं चरिमाचरिमत्त परूवणं(१) जीवदारंप. जीवेणं भंते ! जीवभावेणं किं चरिमे,अचरिमे? उ. गोयमा ! नो चरिमे, अचरिमे। प. दं.१ नेरइएणं भंते ! नेरइयभावेणं किं चरिमे,अचरिमे? उ. गोयमा ! सिय चरिमे, सिय अचरिमे। दं.२-२४ एवं जाव वेमाणिए। सिद्धे जहा जीवे। प.. जीवाणं भंते ! जीवभावेणं किं चरिमा, अचरिमा? द्रव्यानुयोग-(३) उ. गौतम ! वह कथंचित् चरम है और कथंचित् अचरम है। द.२-२४. इसी प्रकार निरन्तर (एक) वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए। प्र. दं.१. भंते ! (अनेक) नैरयिक स्पर्शचरम की अपेक्षा से चरम हैं या अचरम हैं ? उ. गौतम ! वे चरम भी हैं और अचरम भी हैं। द. २-२४. इसी प्रकार निरन्तर वैमानिकों पर्यन्त कहना चाहिए। ३. एकत्व बहुत्व की विवक्षा से जीव-चौवीस दंडक और सिद्धों म जीवादि चौदह द्वारों से चरमाचरमत्व का प्ररूपण(१) जीव द्वारप्र. भंते ! जीव, जीवभाव (जीवत्व) की अपेक्षा से चरम है या अचरम है? उ. गौतम ! चरम नहीं है, अचरम है। प्र. दं.१. भंते ! नैरयिक जीव नैरयिकभाव की अपेक्षा से चरम है या अचरम है? उ. गौतम ! वह कदाचित् चरम है और कदाचित् अचरम है। दं. २-२४. इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए। सिद्ध का कथन जीव के समान कहना चाहिए। प्र. भंते ! (अनेक) जीव जीवभाव की अपेक्षा से चरम हैं या अचरम हैं ? उ. गौतम ! वे चरम नहीं हैं, अचरम हैं। दं.१. नैरयिक जीव नैरयिक भाव से चरम भी हैं और अचरम भी हैं। दं. २-२४. इसी प्रकार वैमानिकों पर्यन्त कहना चाहिए। सिद्धों का कथन जीवों के समान है। आहारक द्वारआहारक जीव सर्वत्र एकवचन की अपेक्षा कदाचित् चरम है और कदाचित् अचरम है। बहुवचन की अपेक्षा चरम भी हैं और अचरम भी हैं। अनाहारक जीव और सिद्ध एक वचन और बहुवचन की अपेक्षा से चरम नहीं है किन्तु अचरम है। शेष (नैरयिक आदि) स्थानों में एक वचन और बहुवचन की अपेक्षा अनाहारक जीव आहारक जीव के समान है। (३) भवसिद्धिक द्वार भवसिद्धिकजीव जीवपद में एक वचन और बहुवचन की अपेक्षा चरम है, अचरम नहीं है। शेष स्थानों में भवसिद्धिक जीव आहारक के समान है। अभवसिद्धिक जीव सर्वत्र एक वचन और बहुवचन की अपेक्षा चरम नहीं हैं, अचरम हैं। नो भवसिद्धिक-नो अभवसिद्धिक जीव और सिद्ध एक वचन और बहुवचन की अपेक्षा अभवसिद्धिक के समान है। उ. गोयमा ! नो चरिमा, अचरिमा। दं.१ नेरइया नेरइयभावेणं चरिमा वि, अचरिमा वि। दं.२-२४ एवं जाव वेमाणिया। सिद्धा जहा जीवा। (२) आहारग दारं आहारए सव्वत्थ एगत्तेणं सिय चरिमे, सिय अचरिमे। पुहत्तेणं चरिमा वि,अचरिमा वि। अणाहारओ जीवो सिद्धो य एगत्तेण वि पुहत्तेण वि नो चरिमा,अचरिमा। सेस ठाणेसु एगत्त-पुहत्तेण जहा आहारओ। (३) भवसिद्धीय दारं भवसिद्धीओजीवपदे एगत्त-पुहत्तेणं चरिमे, नो अचरिमे। सेस ठाणेसु जहा आहारओ। अभवसिद्धीओ सव्वत्थ एगत्त-पुहत्तेणं नो चरिमे, अचरिमे। नोभवसिद्धीय-नोअभवसिद्धीय जीवा सिद्धा य एगत्त पुहत्तेणं जहा अभवसिद्धीओ। १. विया.स.८,उ.३, सु.८
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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