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________________ चरमाचरम अध्ययन : आमुख जैन आगमों में जीवादि द्रव्यों की विविध प्रकार से प्ररूपणा की गई है। इससे इन द्रव्यों की विविध विशेषताएँ प्रकट हुई हैं। प्रस्तुत अध्ययन में चरम एवं अचरम की दृष्टि से निरूपण है। चरम का अर्थ होता है अन्तिम एवं अचरम का अर्थ होता है जो अन्तिम न हो। जीव एवं अजीव द्रव्य जिस अवस्था-विशेष अथवा भाव- विशेष को पुनः प्राप्त नहीं करेंगे, उस अवस्था एवं भाव-विशेष की अपेक्षा वे चरम एवं जिसे पुनः प्राप्त करेंगे उसकी अपेक्षा अचरम कहे जाते हैं। षड्द्रव्यों में से जीव एवं पुद्गल में ही चरम एवं अचरम की दृष्टि से विचार किया गया है, शेष चार द्रव्यों-धर्म, अधर्म, आकाश एवं काल में चरम एवं अचरम की दृष्टि से आगम में कोई विचार नहीं हुआ है। जीव-सामान्य एवं २४ दण्डकों में चरमाचरमत्व का निरूपण ११ द्वारों से किया गया है। वे ११ द्वार हैं-१. गति, २. स्थिति, ३. भव, ४. भाषा, ५. आनपान, ६. आहार, ७. भाव,८. वर्ण, ९. गंध, १०. रस एवं ११. स्पर्श द्वार जीव-सामान्य का विचार मात्र गति द्वार से किया गया है और उस दृष्टि से जीव कथंचित् चरम है और कथंचित् अचरम है। किन्तु अन्य द्वारों की दृष्टि से विचार किया जाय तो भी उसे कथंचित् चरम एवं कथंचित् अचरम कहा जा सकता है। चौबीस दण्डकों में से नैरयिक आदि एक-एक जीव भी वैमानिक पर्यन्त इन ग्यारह ही द्वारों की अपेक्षा कथंचित् चरम एवं कथंचित् अचरम कहे गए हैं। बहुत से जीवों की विवक्षा से कहा गया है कि वे चरम भी हैं और अचरम भी हैं। यह कथन २४ ही दण्डकों के जीवों का ग्यारहों द्वारों में समान है। भाषा द्वार एकेन्द्रिय के पाँच दण्डकों में लागू नहीं होता है, क्योंकि उनमें भाषा नहीं होती। यह चरम एवं अचरम का निरूपण अनेकान्तवाद को पुष्ट करता है। दृष्टिभेद से ही एक जीव को चरम एवं अचरम कहा जा सकता है। यह कथन उन विभिन्न द्वारों में विद्यमान जीव के इस भव एवं पर-भव की अपेक्षा या संसार से मुक्त होने आदि की अपेक्षा से किया गया है। यह आपेक्षिक कथन 'सिय' शब्द से किया गया है, जिससे आगे चलकर स्याद्वाद पुष्ट हुआ है। एकत्व एवं बहुत्व की विवक्षा से जीव के चौबीस दण्डकों एवं सिद्धों का व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र के अनुसार १४ द्वारों से भी इस अध्ययन में चरमाचरमत्व की दृष्टि से विचार हुआ है। वे १४ द्वार हैं-१.जीव, २. आहारक, ३. भवसिद्धिक, ४. संज्ञी, ५. लेश्या, ६. दृष्टि,७. संयत, ८. कषाय, ९.ज्ञान, १०. योग, ११. उपयोग, १२. वेद, १३. शरीर एवं १४. पर्याप्तक द्वार। जीव जीव-भाव की अपेक्षा से अचरम है, क्योंकि उसका जीव-भाव कभी नष्ट नहीं होता, किन्तु नैरयिक जीव नैरयिक भाव की अपेक्षा से कथंचित् चरम एवं कथंचित् अचरम है, क्योंकि नैरयिक भाव पुनः प्राप्त नहीं होने की अपेक्षा से वह चरम तथा पुनःप्राप्त नहीं होने की अपेक्षा अचरम है। इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त अन्य दण्डकों के एक-एक जीव भी कथंचित चरम एवं कथंचित् अचरम होते हैं। बहुत से नैरयिक आदि जीव सभी दण्डकों में जीव-भाव की अपेक्षा से चरम एवं अचरम दोनों कहे गए हैं। सिद्ध जीव भी जीव-सामान्य के समान अचरम होते हैं। आहार करने वाले आहारक जीव एक की अपेक्षा से स्यात् चरम एवं स्यात् अचरम होते हैं तथा बहुत्व की अपेक्षा से चरम एवं अचरम दोनों होते हैं। अनाहारक एवं सिद्ध जीव अचरम होते हैं, चरम नहीं। नैरयिक आदि दण्डकों में एकवचन एवं बहुवचन की अपेक्षा अनाहारक जीव आहारक जीव की भाँति चरम एवं अचरम होते हैं। ये जीव विग्रह गति के समय अनाहारक होते हैं, अन्यथा सदैव आहारक होते हैं। भवसिद्धिक जीव चरम होते हैं तथा अभवसिद्धिक जीव अचरम होते हैं। नोभवसिद्धिक, नोअभवसिद्धिक जीव एवं सिद्ध अभवसिद्धिक के समान अचरम होते हैं। संज्ञी, सलेश्यी, मिथ्यादृष्टि, संयती, सकषायी, सयोगी, सवेदक, सशरीरी एवं पर्याप्तक-अपर्याप्तक जीवों का.कथन आहारक द्वार की भाँति है। सम्यग्दृष्टि एवं साकार-अनाकारोपयोगी जीवों का कथन अनाहारक जीवों के समान है। नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी, नोसंयत-नोअसंयतनोसंयतासंयत, अकषायी, केवलज्ञानी, अयोगी, अवेदक एवं अशरीरी जीव अचरम होते हैं। अल्पबहुत्व की अपेक्षा अचरम जीव अल्प हैं तथा चरम जीव उनसे अनन्तगुने हैं। अजीव द्रव्यों में से पुद्गल का ही चरमाचरमत्व वर्णित है। पुद्गल के पाँच संस्थान (आकार) होते हैं-१. परिमंडल, २. वृत्त, ३. त्रिकोण, ४. चतुष्कोण और ५. आयत। यह विभाजन उपलक्षण से है। पंचकोण षट्कोण आदि भी चतुष्कोण में गृहीत हो जाएँगे। ये विभिन्न संस्थान जब संख्यात प्रदेशी होते हैं तो संख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ होते हैं, जब असंख्यात प्रदेशी एवं अनन्त प्रदेशी होते हैं तो कदाचित् संख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ होते हैं तथा कदाचित् असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ होते हैं किन्तु अनन्त प्रदेशों में अवगाढ़ नहीं होते। ये सभी संस्थान नियम से एक की अपेक्षा अचरम, बहुवचन की अपेक्षा चरम तथा चरमान्त प्रदेश एवं अचरमान्त प्रदेश हैं। इनका द्रव्य की अपेक्षा, प्रदेशों की अपेक्षा एवं द्रव्य प्रदेशों की अपेक्षा अल्पबहुत्व भी प्रस्तुत अध्ययन में निर्दिष्ट हुआ है। परमाणु पुद्गल के चरमाचरमत्व के प्रसंग में द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव से विचार किया जाय तो द्रव्यादेश से परमाणु पुद्गल चरम नहीं अचरम है, क्षेत्रादेश, कालादेश एवं भावादेश से वह कदाचित् चरम है और कदाचित् अचरम है। प्रज्ञापना सूत्र के दसवें पद के अनुसार यहाँ परमाणु पुद्गल एवं विभिन्न स्कन्धों के चरमाचरमत्व का भी निरूपण किया गया है। गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से परमाणु पुद्गल के सम्बन्ध में २६ भंगों में प्रश्न किया है, जिसका उत्तर भगवान महावीर ने संक्षेप में देते हुए कहा कि इन छब्बीस में से परमाणु में मात्र तृतीय भंग ‘अवक्तव्य' पाया जाता है शेष चरम, अचरम आदि २५ भंगों का निषेध है। इसी प्रकार द्विप्रदेशिक स्कन्ध, त्रिप्रदेशिक स्कन्ध, चतुष्प्रदेशिक स्कन्ध, पंचप्रदेशिक स्कन्ध, षट्प्रदेशिक स्कन्ध, सप्तप्रदेशिक स्कन्ध, अष्टप्रदेशिक स्कन्ध तथा संख्यात प्रदेशी, असंख्यात प्रदेशी और अनन्त प्रदेशी स्कन्धों में २६ भंगों में से पाए जाने वाले भंगों का निरूपण किया गया है। आठ पृथ्वियों एवं लोकालोक के चरमाचरमत्व का भी इस अध्ययन में प्रतिपादन है। आठ प्रकार की पृथ्वियों में सात तो नरक की पृथ्वियाँ हैं तथा आठवीं ईषलाग्भारा पृथ्वी है। ये सभी पृथ्वियाँ एकवचन की अपेक्षा अचरम एवं बहुवचन की अपेक्षा चरम, चरमान्त प्रदेशों वाली एवं अचरमान्त प्रदेशों वाली हैं। लोक एवं अलोक के लिये भी यही कथन है। कायस्थिति की दृष्टि से चरम जीव चरम अवस्था में अनादि सपर्यवसित काल तक रहता है तथा अचरम जीव अचरम अवस्था में अनादि अपर्यवसित एवं सादि अपर्यवसित काल तक रहता है। इस प्रकार यह अध्ययन चरमाचरमत्व के विशेष निरूपण से सम्पन्न है। (१७०८)
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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