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________________ ( १६९४ ।। उ. गोयमा ! एवं जहेव वेउव्वियसमुग्घाए तहेव। णवर-आयामेणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, सेसंतंचेव। दं.१-२४.एवं णेरइयस्स जाव वेमाणियस्स। णवर-पंचेंदिय-तिरिक्खजोणियस्स एगदिसिं एवइए खेत्ते अफुण्णे, एवइए खेते फुडे। ६. आहारगसमुग्घाएप. जीवे णं भंते ! आहारगसमुग्घाएणं समोहए समोहणित्ता जे पोग्गले णिच्छुभइ तेहि णं भंते ! पोग्गलेहिं केवइए खेत्ते अफुण्णे, केवइए खेत्ते फुडे ? उ. गोयमा ! सरीरपमाणमेत्ते विक्खंभ-बाहल्लेणं, आयामेणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं संखेज्जाई जोयणाई एगदिसिं एवइए खेत्ते अफुण्णे, एवइए खेत्ते फुडे। प. से णं भंते ! खेत्ते केवइकालस्स अफुण्णे, केवइकालस्स उ. गोयमा ! एगसमइएण वा, दुसमइएण वा, तिसमइएण वा,विग्गहेणं एवइकालस्स अफुण्णे, एवइकालस्स फुडे। प. ते णं भंते ! पोग्गला केवइकालस्स णिच्छुभइ ? उ. गोयमा !जहण्णेण वि, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तस्स। द्रव्यानुयोग-(३) उ. गौतम ! जैसे वैक्रिय समुद्घात के विषय में कहा है उसी प्रकार तैजस्समुद्घात के विषय में भी कहना चाहिए। विशेष-तैजसूसमुद्घात निर्गत पुद्गलों से लम्बाई में जघन्यतः अंगुल का असंख्यातवां भाग क्षेत्र परिपूर्ण एवं स्पृष्ट होता है। शेष कथन (वैक्रिय समुद्घात) के समान है। इसी प्रकार नैरयिक से वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए। विशेष-पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक एक ही दिशा में पूर्वोक्त क्षेत्र को परिपूर्ण एवं स्पृष्ट करता है। ६. आहारक समुद्घातप्र. भंते ! आहारकसमुद्घात से समवहत जीव समवहत होकर जिन पुद्गलों को (अपने शरीर से) बाहर निकालता है तो भंते! उन पुद्गलों से कितना क्षेत्र परिपूर्ण तथा कितना क्षेत्र स्पृष्ट होता है? उ. गौतम ! विष्कम्भ और बाहल्य की अपेक्षा शरीरप्रमाण क्षेत्र को तथा लम्बाई में जघन्य अँगुल के असंख्यातवें भाग क्षेत्र को और उत्कृष्ट संख्यात योजन जितने क्षेत्र को एक दिशा में परिपूर्ण और स्पृष्ट करता है। प्र. भंते ! वह क्षेत्र कितने काल में परिपूर्ण होता है और कितने काल में स्पृष्ट होता है? उ. गौतम ! एक समय, दो समय या तीन समय विग्रह जितने काल से वह क्षेत्र परिपूर्ण और स्पृष्ट हो जाता है। प्र. भंते ! उन पुद्गलों की कितने समय में बाहर निकालता है? उ. गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त में वह उन पुद्गलों को बाहर निकालता है। प्र. भंते ! बाहर निकाले हुए वे पुद्गल वहाँ जिन प्राणों यावत् सत्वों का अभिघात करते हैं यावत उपद्रवित करते हैं तब भंते! वह जीव कितनी क्रियाओं वाला होता है? उ. गौतम ! वह कदाचित् तीन क्रिया वाला, कदाचित् चार क्रिया वाला और कदाचित् पाँच क्रियाओं वाला होता है। प्र. भंते ! वे आहारकसमुद्घात द्वारा बाहर निकाले पुद्गलों से स्पृष्ट हुए (जीव आहारक समुद्घात करने वाले) जीव के निमित्त से कितनी क्रियाओं वाले होते हैं ? उ. गौतम ! पूर्ववत् क्रियाएँ जाननी चाहिए। प्र. भंते ! (आहारकसमुद्घातकर्ता) वह जीव तथा (आहार कसमुद्घातगत पुद्गलों से स्पृष्ट) वे जीव अन्य जीवों का परम्परा से घात करने से कितनी क्रियाओं वाले होते हैं ? उ. गौतम ! वे तीन क्रिया वाले भी होते हैं, चार क्रिया वाले भी होते हैं और पाँच क्रिया वाले भी होते हैं। इसी प्रकार मनुष्य का आहारकसमुद्घात संबंधी कथन करना चाहिए। १२. मारणांतिक समुद्घात से समवहत जीवों में आहारादि का प्ररूपणप्र. भंते ! जो जीव मारणांतिक समुद्घात से समवहत हुआ और समवहत होकर इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों प. ते णं भंते ! पोग्गला णिच्छुढा समाणा जाई तत्थ पाणाई जाव सत्ताई अभिहणंति जाव उद्दति तओणं भंते ! जीवे कइकिरिए? उ. गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए। प. ते णं भंते ! जीवा ताओ जीवाओ कइकिरिया? उ. गोयमा ! एवं चेव। प. से णं भंते ! जीवे तेय जीवा अण्णेसिं जीवाणं परंपराघाएणं कइकिरिया? उ. गोयमा ! तिकिरिया वि, चउकिरिया वि, पंच किरिया वि। एवं मणूसे वि। -पण्ण.प.३६,सु.२१५३-२१६७ १२. मारणांतिय समुग्धाएण समोहएसुजीवेसुआहाराइ परूवणं- प. जीवेणं भंते ! मारणांतियसमुग्धाएणं समोहए समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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