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________________ १६६२ प. भंते ! जइ गेवेज्जा कप्पातीयवेमाणियदेवेहितो उववज्जंति-किं हेट्ठिम-हेट्ठिम गेवेज्जगकप्पातीय जाव उवरिम-उवरिम गेवेज्जा कप्पातीयवेमाणियदेवेहितो उववज्जंति? उ. गोयमा ! हेट्ठिम-हेट्ठिम गेवेज्जा जाव उवरिम-उवरिम गेवेज्जा । प. गेवेज्जगदेवे णं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उववज्जित्तए, से णं भंते ! केवइयं कालट्ठिईएसु उववज्जेज्जा? उ. गोयमा ! जहण्णेणं वासपुहत्तट्ठिईएसु, उक्कोसेणं पुव्वकोडीट्ठिईएसु। अवसेसंजहा आणयदेवस्स वत्तव्वया, णवरं-ओगाहणा-एगे भवधारणिज्जे सरीरए। से जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं दो रयणीओ। संठाणं-एगे भवधारणिज्जे सरीरे से समचउरससंठाणसंठिए पण्णत्ते। पंच समुग्घाया पण्णत्ता,तं जहा१. वेयणासमुग्घाए जाव ५.तेयगसमुग्घाए, नो चेवणं वेउव्वियतेयगसमुग्घाएहिं समोहणिंसु वा, समोहणंति वा, समोहणिस्संति वा। ठिई अणुबंधो जहण्णेणं बावीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं एक्कतीसं सागरोवमाई। कालादेसेणं जहण्णेणं बावीसं सागरोवमाई वासपुहत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं तेणउइं सागरोवमाई तिहिं पुव्वकोडीहिं अब्भहियाई, एवइयं काल सेवेज्जा, एवइयं कालं गतिरागतिं करेज्जा। (पढमो गमओ) एवं सेसेसु वि अट्ठगमएसुभाणियव्वा। णवरं-ठिई संवेहं च उवउंजिऊण जाणेज्जा।(१-९) द्रव्यानुयोग-(३) प्र. भन्ते ! यदि वे (मनुष्य) ग्रैवेयक कल्पातीत वैमानिक देवों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या वे अधस्तन-अधस्तन देवों से आकर उत्पन्न होते हैं यावत् उपरितन उपरितन ग्रैवेयक कल्पातीत वैमानिक देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! वे (मनुष्य) अधस्तन-अधस्तन यावत् उपरितन उपरितन ग्रैवेयक कल्पातीत देवों से भी आकर उत्पन्न होते हैं। प्र. भन्ते ! ग्रैवेयक देव, जो मनुष्यों में उत्पन्न होने योग्य है तो भन्ते ! वह कितने काल की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है? उ. गौतम ! वह जघन्य वर्ष पृथक्त्व की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। शेष सब कथन आनतदेव के समान जानना चाहिए। विशेष-उसके एक मात्र भवधारणीय शरीर होता है। जिसकी अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट दो रलि (हाथ) की होती है। उसका भवधारणीय शरीर समचतुरस्रसंस्थान से युक्त कहा गया है। उसके पाँच समुद्घात कहे गए हैं, यथा१. वेदना-समुद्घात यावत् ५. तैजस्-समुद्घात। किन्तु उन्होंने वैक्रिय समुद्घात और तैस् समुद्घात कभी किये नहीं, करते भी नहीं और करेंगे भी नहीं। उनकी स्थिति और अनुबन्ध जघन्य बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट इकतीस सागरोपम है। कालादेश से जघन्य वर्ष पृथक्त्व अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट तीन पूर्वकोटि-अधिक तिरानवें सागरोपम जितना काल व्यतीत करता है और इतने ही काल तक गमनागमन करता है। (यह प्रथम गमक है) शेष आठों ही गमकों में भी इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष-स्थिति और संवेध उपयोग पूर्वक भिन्न-भिन्न जानना चाहिए।(१-९) प्र. भन्ते ! यदि वे (मनुष्य) अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत वैमानिक देवों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या वे विजय, वैजयन्त यावत् सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत वैमानिक देवों से आकर उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! वे (मनुष्य) विजय अनुत्तरोपपातिक यावत् सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत वैमानिक देवों से आकर उत्पन्न होते हैं। प्र. भन्ते ! विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देव जो मनुष्यों में उत्पन्न होने योग्य है तो भन्ते ! वे कितने काल की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! उनका ग्रैवेयक देवों के अनुसार समग्र कथन करना चाहिए। विशेष-उनकी अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक रनि (हाथ) की होती है। प. भंते ! जइ अणुत्तरोववाइय कप्पातीय वेमाणियदेवेहितो उववज्जति-किं विजय अणुत्तरोववाइय वेजयंत अणुत्तरोववाइय जाव सव्वट्ठसिद्ध अणुत्तरोववाइय कप्पातीय वेमाणियदेवेहिंतो उववज्जति? उ. गोयमा ! विजय अणुत्तरोववाइय जाव सब्वट्ठसिद्ध अणुत्तरोववाइय कप्पातीय वेमाणियदेवेहितो उववज्जति। प. विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियदेवेणं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उववज्जित्तए, से णं भंते ! केवइयं कालट्ठिईएसु उववज्जेज्जा? । उ. गोयमा ! जहेव गेवेज्जगदेवाणं वत्तव्वया भणिया सा चेव सव्वा भाणियव्वा। णवर-ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं एगा रयणी।
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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