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________________ गम्मा अध्ययन चत्तारि सण्णाओ । चत्तारि कसाया। एगे फासिदिए पण्णत्ते। तिण्णि समुग्धाया । वेदणा दुविहा नो इत्थवेदगा, नो पुरिसवेदगा, नपुंसगवेदगा । ठिई-जहणेणं वाससहस्साई । अंतोमुहुत्तं, अंतोमुहुतं उक्कोसेणं बावीसं अज्झवसाणा सत्था वि, अप्पसत्था वि । अणुबंधो जहा ठिई। प. से णं भंते! पुढविक्काइए पुणरवि पुढविकाइए त्ति केवइयं कालं सेवेज्जा, केवइयं कालं गतिरागति करेज्जा ? उ. गोयमा ! भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं असंखेज्जाई भवग्गहणाई। कालादेसेणं जहणेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं, एवइयं कालं सेवेज्जा, एवइयं कालं गतिरागति करेज्जा । (पढमो गमओ) सो चैव जहण्णकालट्ठिईएस उबवण्णो जहणेण अंतोमुहुत्तट्टिईए उक्कोसेण वि अंतोनिईए उबबज्जेजा। ऐसा बत्तव्वया निरवसेसा पढमगमगसरिसा भाणियव्वा । (२) बिईओ गमओ । सो चैव उक्कोसकालडिईएस उबवण्णो जहण्णेण बावीस बाससहस्सट्ठिईएस उक्कणं वि बावीसं वाससहस्सडिईएसु उववज्जेज्जा । सेसं तं चेव पढम गमग सरिसं । बरं-जहण्णेणं एक्लो वा दो वा तिण्णि या उक्कोसेणं संखेज्जावा, असंखेज्जा वा उववज्जति । भवादेसेणं जहणेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई। कालादेसेणं जहणेणं बावीसं वाससहरसाई अंतोमुहुत्तमन्महियाई उक्कोसेणं छायत्तरं वाससहस्सुतरं सयसहस्सं एवइयं कालं सेवेज्जा, एवइयं काल गतिरागति करेजा (३) तइओ गमओ) सो चेव अप्पणा जहण्णकालट्ठिईओ जाओ, सच्चेव पढम गमग वत्तव्वया भाणियव्या । णवर लेस्साओ तिण्णिा । ठिई जहण्णेण अंतोमुहुर्त, उक्कोसेण वि अंतोतं अप्पसत्था अज्झवसाणा । चारों संज्ञाएँ होती हैं। चारों कषाय होते हैं। एक मात्र स्पर्शेन्द्रिय कही गई है। (आदि के ) तीन समुद्घात होते हैं, (साता और असाता) दोनों वेदनाएं होती हैं। १६३१ वे स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी नहीं होते किन्तु नपुंसकवेदी ही होते हैं। स्थिति-जयन्य अन्तर्मुहुर्त की और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की होती है। अध्यवसाय प्रशस्त और अप्रशस्त होते हैं। अनुबन्ध स्थिति के अनुसार है। प्र. भंते ! वह पृथ्वीकायिक मरकर पुनः पृथ्वीकायिक रूप में उत्पन्न हो तो कितना काल व्यतीत करता है और कितने काल तक गमनागमन करता है ? उ. गौतम ! भवादेश से वह जघन्य दो भव एवं उत्कृष्ट असंख्यात भव ग्रहण करता है। कालादेश से वह जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यात काल व्यतीत करता है और इतने ही काल तक गमनागमन करता है। (यह पहला गमक है।) यदि वह (पृथ्वीकायिक) जघन्य काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिक में उत्पन्न हो तो जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है। शेष समग्र कथन प्रथम गमक के समान करना चाहिए। (यह द्वितीय गमक है) यदि वह (पृथ्वीकाधिक) उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न हो तो जघन्य बाईस हजार वर्ष और उत्कृष्ट भी बाईस हजार वर्ष की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है। शेष अनुबन्ध पर्यन्त सब कथन ( प्रथम गमक के समान) जानना चाहिए। विशेष- वह जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। भवादेश से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव ग्रहण करता है। कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक बाईस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक लाख छिहत्तर हजार (१,७६,०००) वर्ष जितना काल व्यतीत करता है और इतने ही काल तक गमनागमन करता है। (यह तृतीय गमक है) वही (पृथ्वीकायिक) स्वयं जघन्य काल की स्थिति वाला हो और पृथ्वीकायिक में उत्पन्न हो तो समग्र कथन प्रथम गमक के समान करना चाहिए। विशेष उनमें लेश्याएँ तीन होती है। उसकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की होती है। उसके अध्यवसाय अप्रशस्त होते हैं।
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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