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________________ १६१४ उ. गोयमा ! एवं जहेव रयणप्पभाए उववज्जंतगस्स लद्धी सच्चेव निरवसेसा भवादेसपज्जवसाणा भाणियव्या। कालादेसेणं जहण्णेणं सागरोवमं अंतोमुत्तमब्भहियं, उक्कोसेणं बारस सागरोवमाई चउहिं पुवकोडीहिं अब्भहियाई, एवइयं कालं सेवेज्जा, एवइयं कालं गतिरागतिं करेज्जा। एवं रयणप्पभापुढविगमगसरिसा नव वि गमगा भाणियव्या, एवं जाव छठ्ठपुढवित्ति, णवरं-नेरइयठिई जा जत्थ पुढवीए जहण्णुक्कोसिया सा तेणं चेव कमेणं चउग्गुणा कायव्वा कालादेसे। द्रव्यानुयोग-(३) ) उ. गौतम ! रलप्रभा नरक में उत्पन्न होने वाले पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों का समग्र कथन यहां भवादेश पर्यन्त कहना चाहिए। कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक एक सागरोपम और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक बारह सागरोपम जितना काल व्यतीत करता है और इतने ही काल तक गमनागमन करता है। इसी प्रकार रत्नप्रभापृथ्वी के गमकों के समान यहां भी नौ ही गमक जानने चाहिए। इसी प्रकार छठी नरकपृथ्वी पर्यन्त जानना चाहिए। विशेष-जिस नरकपृथ्वी में जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति जितने काल की हो, कालादेश में उसे उसी क्रम से चार गुणी करनी चाहिए। यथा-वालुकाप्रभापृथ्वी में उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपम की है उसे चार गुणा करने से अट्ठाईस सागरोपम होती है। पंकप्रभा में (चौगुणी) चालीस सागरोपम की है, धूमप्रभा में चौगुणी अड़सठ सागरोपम की है। तमःप्रभा में चौगुणी अट्ठासी सागरोपम की है। संहनन में-बालुकाप्रभा में पांच संहनन वाले जाते हैं, यथा१. वज्रऋषभनाराचसंहननी यावत् ५ कीलिका संहननी। पंकप्रभा में आदि के चार संहनन वाले जाते हैं। धूमप्रभा में आदि के तीन संहनन वाले जाते हैं। तमःप्रभा में आदि के दो संहनन वाले जाते हैं। यथा-१. वज्रऋषभनाराच संहननी, २. ऋषभनाराच संहननी। जहा-वालुयप्पभाए पुढवीए अट्ठावीसं सागरोवमाई चउग्गुणिया भवंति, पंकप्पभाए चत्तालीसं, धूमप्पभाए अट्ठसटिंठ, तमाए अट्ठासीइं। संघयणाई-वालुयप्पभाए पंचविहसंघयणी,तं जहा१. वइरोसभनारायसंघयणी जाव ५.खीलियासंघयणी, पंकप्पभाए चउव्विहसंघयणी, धूमप्पभाए तिविहसंघयणी, तमाए दुविहसंघयणी,तं जहा१. वइरोसभनारायसंघयणी य, २.उसभनारायसंघयणी य। -विया. स. २४, उ.१,सु.७७-८० ६. अहेसत्तम नरयउववज्जतेसु पज्जत्त सन्नि संखेज्ज वासाउय पंचिंदिय तिरिक्खजोणिएसु उववायाइ वीसं दारं परूवणं ६. अधःसप्तम नरक में उत्पन्न होने वाले पर्याप्त संख्यात वर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक में उपपातादि बीस द्वारों का प्ररूपणप्र. भंते ! पर्याप्त संख्यातवर्षायुष्क संज्ञी-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीव सप्तमनरकपृथ्वी में उत्पन्न होने योग्य हो तो भंते! वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? प. पज्जत्तसंखेज्जवासाउयसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए अहेसत्तमाए पुढवीए नेरइएसु उववज्जित्तए, से णं भंते ! केवइयकालट्ठिईएसु उववज्जेज्जा? उ. गोयमा ! जहण्णेणं बावीससागरोवमट्ठिईएसु, उक्कोसेणं तेत्तीससागरोवमट्ठिईएसु उववज्जेज्जा। प. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववति ? उ. गोयमा ! एवं जहेव रयणप्पभाए नव गमगा लद्धी य भणिया सच्चेव भाणियव्वा। णवरं-वइरोसभनारायसंघयणी। इत्थिवेदगा न उववज्जति, संवेहो-भवादेसेणं जहण्णेणं तिण्णि भवग्गहणाई, उक्कोसेणं सत्त भवग्गहणाई। उ. गौतम ! वह जघन्य बाईस सागरोपम की और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है। प्र. भंते ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! रलप्रभापृथ्वी के समान इसके भी नौ गमक और उनकी लब्धि कहनी चाहिए। विशेष-वहां वज्रऋषभनाराचसंहनन वाला ही उत्पन्न होता है, स्त्रीवेद वाले जीव वहां उत्पन्न नहीं होते हैं। संवेध-भवादेश से जघन्य तीन भव और उत्कृष्ट सातभव ग्रहण करते हैं।
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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