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________________ ( १५९६ - किं नेरइएहिंतो उववति जाव देवेहिंतो उववति? उ. गोयमा ! उववाओ जहा वक्कंतीए। णवरं-परिमाणं एक्को वा, पंच वा, नव वा, तेरस वा, संखेज्जा वा,असंखेज्जा वा उववज्जंति। प. ते णं भंते ! जीवा जं समयं कलिओया तं समयं कडजुम्मा, जं समयं कडजुम्मा तं समयं कलिओया? उ. गोयमा ! नो इणठे समठे। एवं तेओयेण वि समं। एवंदावरजुम्मेण वि समं। दं.२-२४. सेसं जहा पढमुद्देसए जाव वेमाणिया। -विया. स.४१, उ.४, सु.१-३ ४४. सलेस्स रासीजुम्म कडजुम्माइ चउवीसदंडएसु उववायाइ परूवणंप. कण्हलेस्स-रासीजुम्म-कडजुम्म-नेरइया णं भंते ! कओहिंतो उववज्जति, उ. गोयमा ! उववाओ जहा धूमप्पभाए। द्रव्यानुयोग-(३)) क्या वे नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं यावत् देवों से आकर उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! इनका उपपात व्युत्क्रान्ति पद के अनुसार जानना चाहिए। विशेष-परिमाण-एक, पाँच, नौ, तेरह, संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। प्र. भंते ! वे जीव जिस समय कल्योज हैं, क्या उस समय कृतयुग्म वाले होते हैं, जिस समय कृतयुग्म हैं, क्या उस समय कल्योज वाले होते हैं ? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। इसी प्रकार त्र्योज के साथ कृतयुग्मादि का कथन जानना चाहिए। द्वापरयुग्म के साथ कृतयुग्मादि का कथन भी इसी प्रकार समझना चाहिए। द.२-२४.शेष सब प्रथम उद्देशक के समान वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए। ४४. सलेश्य राशियुग्म कृतयुग्मादि वाले चौबीस दंडकों में उत्पातादि का प्ररूपणप्र. भंते ! कृष्णलेश्यी राशियुग्म-कृतयुग्मराशि वाले नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! इनका उपपात धूमप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के समान कहना चाहिए। शेष सब कथन प्रथम उद्देशक के अनुसार जानना चाहिए। असुरकुमारों के विषय में भी इसी प्रकार वाणव्यन्तरों पर्यन्त कहना चाहिए। मनुष्यों के विषय में भी नैरयिकों के समान कथन करना चाहिए। वे आत्म-अयश (असंयम) पूर्वक जीवन-निर्वाह करते हैं। यहां पर अलेश्यी, अक्रिय तथा उसी भव में सिद्ध होने का कथन नहीं करना चाहिए। शेष सब कथन प्रथमोद्देशक के समान है। कृष्णलेश्यी योजराशि नैरयिक का उद्देशक भी इसी प्रकार कहना चाहिए। कृष्णलेश्यी द्वापरयुग्मराशि वाले नैरयिक का उद्देशक भी इसी प्रकार जानना चाहिए। कृष्णलेश्यी कल्योजराशि वाले नैरयिकों का उद्देशक भी इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इनका परिमाण और संवेध औधिक उद्देशक के अनुसार समझना चाहिए। जिस प्रकार कृष्णलेश्या के चार उद्देशक कहे उसी प्रकार नीललेश्या के भी समग्र रूप से चार उद्देशक कहने चाहिए। विशेष-नैरयिकों के उपपात का कथन वालुकाप्रभा के समान जानना चाहिए। सेसं जहा पढमुद्देसए। असुरकुमाराणं तहेव एवं जाव वाणमंतराणं। मणुस्साण वि जहेव नेरइयाणं। आयअजसं उवजीवंति। अलेस्सा अकिरिया, तेणेव भवग्गहणेणं सिझंति एवं न भाणियव्यं। सेसं जहा पढमुद्देसए। -विया. स.४१, उ.५, सु.१-३ कण्हलेस्सतेयोएहि विएवं चेव उद्देसओ। -विया. स.४१, उ.६, सु.१ कण्हलेस्सदावरजुम्मेहि वि एवं चेव उद्देसओ। ___-विया. स.४१, उ.७, सु.१ कण्हलेस्सकलिओएहि वि एवं चेव उद्देसओ। परिमाणं संवेहो य जहा ओहिएसु उद्देसएसु। -विया. स.४१, उ.८,सु.१ जहा कण्हलेस्सेहिं एवं नीललेस्सेहि वि चत्तारि उदेसगा भाणियव्वा निरवसेसा, णवरं-नेरइयाणं उववाओ जहा वालुयप्पभाए।
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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