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________________ युग्म अध्ययन णवरं-बंधो, वेदो, उदई, उदीरणा, लेस्सा, बंधगा, सण्णा, कसाय, वेदबंधगा य एयाणि जहा बेइंदियाणं कण्हलेस्साणं। वेदो तिविहो, अवेदगा नत्थि। संचिट्ठणा जहण्णेणं एवं समयं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुत्तमब्भहियाई। एवं ठिई वि। णवरं-ठिईए अंतोमुहुत्तममहियाई न भण्णंति। सेसं जहा एएसिं चेव पढमे उद्देसए जाव अणंतखुत्तो। एवं सोलससु वि जुम्मेसु। -विया. स. ४०, २/स.पं., उ. १ प. पढमसमय-कण्हलेस्स-कडजुम्मकडजुम्म-सन्नि-पंचेंदिया णं भंते ! कओहिंतो उववज्जति? उ. गोयमा ! जहा सन्नि-पंचेंदिय-पढमसमयुदेसए तहेव निरवसेसं।णवरंप. ते णं भंते ! जीवा कण्हलेस्सा? उ. हता, गोयमा ! कण्हलेस्सा, सेसंतं चेव। एवं सोलससु वि जुम्मेसु। एवं एए वि एक्कारस उद्देसगा कण्हलेसस्सए। पढम-तइय-पंचमा सरिसगमा। सेसा अट्ठ वि सरिसगमा। -विया. स. ४० २/स.पं., उ.२-११ एवं नीललेस्सेसु वि सयं। णवरं-संचिट्ठणा जहण्णेणं एवं समयं, उक्कोसेणं दस सागरोवमाई पलिओवमस्स असंखेज्जइभागमब्भहियाई, एवं ठिई वि। एवं तिसु उद्देसएसु। ( १५८९) विशेष-बन्ध, वेद, उदय, उदीरणा, लेश्या, बन्धक, संज्ञा, कषाय और वेदबंधक इन सभी का कथन कृष्णलेश्यी द्वीन्द्रिय जीवों के समान है। इनमें तीनों वेद होते हैं, अवेदक नहीं होते। उनकी संचिट्ठणा जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम की है। उनकी स्थिति भी इसी प्रकार है। विशेष-स्थिति में अन्तर्मुहूर्त अधिक नहीं कहना चाहिए। शेष सब कथन इन्हीं के प्रथम उद्देशक के अनुसार अनन्त बार उत्पन्न होते हैं पर्यन्त जानना चाहिए। इसी प्रकार सोलह युग्मों का कथन करना चाहिए। प्र. भंते ! प्रथमसमयोत्पन्न कृष्णलेश्यी कृतयुग्म-कृतयुग्मराशि वाले संज्ञीपंचेन्द्रिय जीव कहां से आकर उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! इनका समग्र कथन प्रथमसमयोत्पन्न संज्ञीपंचेन्द्रियों के उद्देशक के अनुसार करना चाहिए। विशेषप्र. भंते ! क्या वे जीव कृष्णलेश्या वाले हैं? उ. हां, गौतम ! वे कृष्णलेश्या वाले हैं। शेष कथन पूर्ववत् है। इसी प्रकार सोलह ही युग्मों में कहना चाहिए। इसी प्रकार कृष्णलेश्याशतक के ग्यारह उदेशक जानने चाहिए। प्रथम, तृतीय और पंचम ये तीनों उद्देशक एक समान हैं। शेष आठ उद्देशक एक समान हैं। नीललेश्या वाले संज्ञी पंचेन्द्रियों का शतक भी इसी प्रकार है। विशेष-इसका संचिट्ठणाकाल जघन्य एक समय उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दस सागरोपम है। स्थिति भी इसी प्रकार समझनी चाहिए। इसी प्रकार (पहले, तीसरे, पाँचवें) तीन उद्देशकों के विषय में जानना चाहिए। शेष कथन पूर्ववत् है। कापोतलेश्या शतक के विषय में भी इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष-संचिट्ठणाकाल जघन्य एक समय, उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक तीन सागरोपम है। स्थिति भी इसी प्रकार है। इसी प्रकार तीनों उद्देशक जानना चाहिए। शेष कथन पूर्ववत् है। तेजोलेश्या शतक के लिए भी इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष-संचिट्ठणाकाल जघन्य एक समय, उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दो सागरोपम है। स्थिति भी इसी प्रकार है। विशेष-यहां नोसंज्ञोपयुक्त भी होते हैं। -विया.स. ४०,३/स.पं., उ.१-११ सेसं तं चेव। एवं काउलेस्ससयं वि, णवरं-संचिट्ठणा जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं तिणि सागरोवमाई पलिओवमस्स असंखेज्जइभागमब्भहियाई, एवं ठिई वि। एवं तिसु वि उद्देसएसु, सेसं तं चेव। -विया. स. ४०, ४/सं. पं., उ.१-११ एवं तेउलेस्सेसु वि सयं। णवरं-संचिट्ठणा जहण्णेणं एवं समय, उक्कोसेणं दो सागरोवमाई पलिओवमस्स असंखेज्जइभागमब्भहियाई, एवं ठिई वि, णवरं-नो सण्णोवउत्ता वा।
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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