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________________ १५०७ उ. हाँ, गौतम ! कई बार या अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं। [ वुक्कंति अध्ययन उ. हता, गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो। -जीवा. पडि.३, सु.८८ ७६. णरय पुढवीसु सव्वजीवाणं पुढविकाइयत्ताइ उववन्नपुव्वत्त परूवणंप. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु इक्कमिक्कंसि निरयावासंसि सव्वे पाणा सव्वे भूया सब्वे जीवा सव्वे सत्ता पुढवीकाइयत्ताए जाव वणस्सइकाइयत्ताए नेरइयत्ताए उववन्नपुव्वा? उ. हता, गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो'। एवं जाव अहेसत्तमाए पुढवीए, णवर-जत्थ जत्तिया णरगा। -जीवा. पडि.३, सु. ९३ ७६. नरक पृथ्वियों में सर्वजीवों का पृथ्वीकायिकत्वादि के पूर्वोत्पन्नत्व का प्ररूपणप्र. भन्ते ! क्या इस रलप्रभापृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से सब प्राणी, सब भूत, सब जीव और सब सत्व पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक और नैरयिक रूप में पूर्व में उत्पन्न हुए हैं? ७७. वेमाणियदेवेसु पुव्योवण्णगत्तजीवाणं अणंतखुत्तो उववण्णपुव्वत्त परूवणंप. सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु सव्वपाणा सव्वभूया सव्वजीवा सव्वसत्ता पुढवीकाइयत्ताए जाव देवत्ताए देवित्ताए आसण-सयण-खंभ भंडोवगरणत्ताए उववन्नपुव्वा? उ. हंता, गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो। सेसेसु कप्पेसु एवं चेव। णवर-नो चेवणं देवित्ताए जाव गेवेज्जगा। अणुत्तरोववाइएसु वि एवं णो चेव णं देवत्ताए वा, देवित्ताए वा। -जीवा. पडि.३, सु.२०५ ७८. वाउकाइयस्स अणंतखुत्तो वाउकाइयत्ताए उववज्जण उव्वट्टणाइ परूवणंप. वाउयाए णं भंते ! वाउयाए चेव अणेगसयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता-उद्दाइत्ता तत्थेव भुज्जो-भुज्जो पच्चायाइ? उ. हता, गोयमा ! वाउयाए चेव अणेगसयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता-उद्दाइत्ता तत्थेव भुज्जो-भुज्जो पच्चायाइ। प. से णं भंते ! किं पुढे उद्दाइ, अपुढे उद्दाइ? उ. हाँ, गौतम ! अनेक बार अथवा अनंत बार उत्पन्न हुए हैं। इसी प्रकार अधःसप्तम पृथ्वी पर्यन्त जानना चाहिए। विशेष-जिस पृथ्वी में जितने नरकावास हैं उनका उल्लेख वहाँ करना चाहिए। ७७. वैमानिक देवों में जीवों का अनन्तबार पूर्वोत्पन्नत्व का प्ररूपणप्र. भन्ते ! सौधर्म ईशान कल्पों में सब प्राणी, सब भूत, सब जीव और सब सत्व क्या पृथ्वीकाय के रूप में यावत् देव के रूप में, देवी के रूप में आसन शयन स्तम्भ भण्डोपकरणक के रूप में पूर्व में उत्पन्न हो चुके हैं? उ. हाँ, गौतम ! अनेक बार या अनन्तबार उत्पन्न हो चुके हैं। शेष कल्पों में भी ऐसा ही कहना चाहिए। विशेष-देवी के रूप में ग्रैवेयक विमानों पर्यन्त उत्पन्न होना नहीं कहना चाहिए।(क्योंकि सौधर्म-ईशान से आगे के विमानों में देवियाँ नहीं होती। अनुत्तरोपपातिक विमानों में भी इसी प्रकार कहना चाहिये, किन्तु देव और देवी के रूप में भी उत्पत्ति नहीं कहना चाहिए। ७८. वायुकाय का अनन्त बार वायुकाय के रूप में उत्पात उद्वर्तन का प्ररूपणप्र. भन्ते ! क्या वायुकाय, वायुकाय में ही अनेक लाख बार मर-मर कर बार-बार उन्हीं में उत्पन्न होता है? उ. हाँ, गौतम ! वायुकाय, वायुकाय में ही अनेक लाख बार मर-मर कर बार-बार उन्हीं में उत्पन्न होता है। प्र. भन्ते ! वायुकाय (स्वकायशस्त्र से या परकायशस्त्र से) स्पृष्ट होकर मरता है या अस्पृष्ट (बिना टकराए हुए) ही मरता है? उ. हाँ, गौतम ! स्पृष्ट होकर मरता है अस्पृष्ट होकर नहीं मरता है। प्र. भन्ते ! वायुकाय मरकर (जब दूसरी पर्याय में जाता है तब) शरीर सहित निकलता है या शरीर रहित होकर निकलता है? उ. गौतम ! वह शरीर सहित भी निकलता है और शरीर रहित भी निकलता है। प्र. भन्ते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि उ. गोयमा ! पुढे उद्दाइ, नो अपुढे उद्दाइ। प. से णं भंते ! किं ससरीरी निक्खमइ, असरीरी निक्खमइ? उ. गोयमा ! सिय ससरीरी निक्खमइ, सिय असरीरी निक्खमड। प. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ १. विया.स.२, उ.३,सु.१
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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