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________________ दुक्कंति अध्ययन पुढविकाइयत्ताए जाय वणस्सइकाइयत्ताए देवत्ताए आसण-सयण-भंडमत्तोवगरणत्ताए देवित्ताए उववन्नपुव्वे ? उ. हंता, गोयमा ! असई अदुवा अनंतखुत्तो सव्वजीवा वि एवं चेव । एवं जाव थणियकुमारेसु । नाणत्तं आवासेसु । प. दं. १२-१६. अयं णं भंते ! जीवे असंखेज्जेसु पुढविकाइयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि पुढविकाइ - यावासंसि पुढविकाइयत्ताए जाव वणस्सइकाइयत्ताए उववन्नवे ? उ. हंता, गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो । एवं जाव वणस्सइकाइएस एवं सब्बजीवा वि प. . १७-२१. अयं णं भंते ! जीवे असंखेज्जेसु दं. बेइंदियावाससयसहस्से एगमेगसि बेइदियावासंसि पुढविकाइयत्ताए जाव वणसइकाइयत्ताए बेइदियत्ताए उववन्नपुव्ये? उ. हंता, गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो। सव्वजीवा वि एवं चेव । एवं जाव मस्से । णवरं-तेइंदिएसु जाव वणस्सइकाइयत्ताए तेइंदियत्ताए चउरिदिएसु चउरिंदियत्ताए पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु पंचेंदियतिरिक्खजोणियत्ताए मणुस्सेसु मणुस्सत्ताए उववन्न पुव्वे । से जहा बेदिया। दं. २२-२४ वाणमंतर जोइसिय सोहम्मीसाणे व जहा असुरकुमाराणं । प. अयं णं भंते! जीये सणकुमारे कप्पे वारससु विमाणावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि वेमाणियावासंसि पुढविकाइयत्ताए जाव वणस्सइकाइयत्ताए देवत्ताए देवित्ताए आसण-सयण-भंडमत्तोवगरणत्ताए उबवन्नपुच्चे ? उ. हंता, गोयमा ! जहा असुरकुमाराणं असई अदुवा अत्तो नो चेवणं देवित्ताए । एवं सव्वजीवा वि। एवं जाव आणय-पाणय-आरणऽच्चुएसु वि । तिसु वि अङ्गारसुत्तरेसु गेवेज्जविमाणावाससएस वि एवं चेव । १५०५ पृथ्वीकायिक रूप में चावत् वनस्पतिकायिक रूप में देवरूप में या देवीरूप में अथवा आसन, शयन, भांड, पात्र आदि उपकरण रूप में पहले उत्पन्न हो चुका है ? उ. हाँ, गौतम ! अनेक बार या अनन्त बार उत्पन्न हो चुका है। सभी जीवों का कथन भी इसी प्रकार करना चाहिए। इसी प्रकार स्तनितकुमारों पर्यन्त कहना चाहिए। उनके आवासों की संख्या में अन्तर है। प्र. दं. १२-१६. भन्ते ! क्या यह जीव असंख्यात लाख पृथ्वीकायिक आवासों में से प्रत्येक पृथ्वीकायिक-आवास में पृथ्वीकायिक रूप में यावत् वनस्पतिकायिक रूप में पहले उत्पन्न हो चुका है ? उ. हाँ, गौतम ! वह अनेक बार अथवा अनन्त बार उत्पन्न हो चुका है। इसी प्रकार वनस्पतिकायिकों पर्यन्त कहना चाहिए। इसी प्रकार सर्वजीवों के लिए भी कहना चाहिए। प्र. दं. १७-२१. भन्ते ! क्या यह जीव असंख्यात लाख द्वीन्द्रिय- आवासों में से प्रत्येक द्वीन्द्रियावास में पृथ्वीकायिक रूप में यावत् वनस्पतिकायिक रूप में और द्वीन्द्रिय रूप में पहले उत्पन्न हो चुका है ? उ. हाँ, गौतम ! अनेक बार अथवा अनन्त बार उत्पन्न हो चुका है। इसी प्रकार सभी जीवों के विषय में भी कहना चाहिए। इसी प्रकार (श्रीन्द्रिय से मनुष्यों पर्यन्त कहना चाहिए। विशेष- प्रीन्द्रियों में वनस्पतिकायिक रूप से श्रीन्द्रिय रूप पर्यन्त चतुरिन्द्रियों में चतुरिन्द्रिय रूप पर्यन्त पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों में पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक रूप पर्यन्त तथा मनुष्यों में मनुष्यों पर्यन्त में (अनेक बार या अनन्तबार) उत्पत्ति जाननी चाहिए। शेष समस्त कथन द्वीन्द्रियों के समान जानना चाहिए। ६.२२-२४. जिस प्रकार असुरकुमारों की उत्पत्ति के लिए कहा उसी प्रकार वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क तथा सौधर्म एव ईशान वैमानिकों तक जानना चाहिए। प्र. भन्ते ! क्या वह जीव सनत्कुमार देवलोक के बारह लाख विमानावासों में से प्रत्येक विमानावास में पृथ्वीकायिक रूप में यावत् वनस्पतिकायिक रूप में, देवरूप में या देवीरूप में तथा आसन शयन भण्डोपकरण के रूप में पहले उत्पन्न हो चुका है ? उ. हाँ, गौतम ! असुरकुमारों के समान अनेक बार या अनन्त बार उत्पन्न हो चुका है, वहाँ वह देवी रूप में उत्पन्न नहीं हुआ है। इसी प्रकार सर्वजीवों के विषय में भी जानना चाहिए। इसी प्रकार आनत-प्राणत-आरण और अच्युत विमानों के लिए भी जानना चाहिए। इसी प्रकार तीन सौ अठारह ग्रैवेयक विमानावासों के लिए भी जानना चाहिए।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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