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________________ १४४६ एवं जहा ओहिया उववाइया तहा रयणप्पभाएपुढविनेरइया वि उववाएयव्या। प. सक्करप्पभाएपुढविनरेइयाणं भंते!कओहितोउववज्जति, किं नेरइएहितो उववज्जति जाव देवेहिंतो उववज्जंति? उ. गोयमा ! एए वि जहा ओहिया तहेवोववाएयव्वा। णवरं-सम्मुच्छिमेहितो पडिसेहो कायव्यो। प. वालुयप्पभाए पुढविनेरइया णं भंते ! कओहिंतो उववज्जति, किं नेरइएहिंतो उववज्जंति जाव देवेहिंतो उववज्जंति? उ. गोयमा ! जहा सक्करप्पभाएपुढविनेरइया। णवर-भुयपरिसप्पेहितो वि पडिसेहो कायव्यो। प. पंकप्पभापुढविनेरइया णं भंते ! कओहिंतो उववज्जंति? द्रव्यानुयोग-(२) इसी प्रकार जैसे औधिक (सामान्य) नारकों के उपपात (उत्पत्ति) के विषय में कहा गया है, वैसे ही रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के उपपात के विषय में भी कहना चाहिए। प्र. भंते ! शर्कराप्रभापृथ्वी के नैरयिक कहां से आकर उत्पन्न होते हैं ? क्या नैरयिकों में से आकर उत्पन्न होते हैं यावत् देवों में से आकर उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! इनका उपपात भी औधिक (सामान्य) नैरयिकों के समान ही समझना चाहिए। विशेष-सम्मूर्छिम में से (इनकी उत्पत्ति का) निषेध करना चाहिए। प्र. भंते ! वालुकाप्रभापृथ्वी के नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं? क्या वे नैरयिकों में से आकर उत्पन्न होते हैं यावत् देघों में से आकर उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! जैसे शर्कराप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की उत्पत्ति के विषय में कहा, वैसे ही इनकी उत्पत्ति के विषय में भी कहना चाहिए। विशेष-भुजपरिसर्प से (इनकी उत्पत्ति का) निषेध करना चाहिए। प्र. भंते ! पंकप्रभापृथ्वी के नैरयिक कहां से आकर उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों में से आकर उत्पन्न होते हैं यावत् देवों में से आकर उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! जैसे वालुकाप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की उत्पत्ति के विषय में कहा, वैसे ही इनकी उत्पत्ति के विषय में भी कहना चाहिए। विशेष-खेचरों में से (इनकी उत्पत्ति का) निषेध करना चाहिए। प्र. भंते ! धूमप्रभापृथ्वी के नैरयिक कहां से आकर उत्पन्न होते हैं? क्या वे नैरयिकों में से आकर उत्पन्न होते हैं यावत् देवों में से आकर उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! जैसे पंकप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की उत्पत्ति के विषय में कहा उसी प्रकार इनकी उत्पत्ति के विषय में भीकहना चाहिए। विशेष-चतुष्पदों में से भी इनकी उत्पत्ति का निषेध करना चाहिए। प्र. भंते ! तमःप्रभापृथ्वी के नैरयिक कहां से आकर उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! जैसे धूमप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की उत्पत्ति के विषय में कहा वैसे ही इस पृथ्वी के नैरयिकों की उत्पत्ति के विषय म समझना चाहिए। विशेष-स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में से इनकी उत्पत्ति का निषेध करना चाहिए। इस (पूर्वोक्त) अभिलाप के अनुसार किनेरइएहिंतो उववजंति जाव देवेहिंतो उववज्जति? उ. गोयमा ! जहा वालुयप्पभापुढविनेरइया। ___णवरं-खहयरेहिंतो विपडिसेहो कायव्यो। प. धूमप्पभापुढविनेरइया णं भंते ! कओहिंतो उववज्जति? किनेरइएहिंतो उववज्जति जाव देवेहिंतो उववज्जति? उ. गोयमा !जहा पंकप्पभापुढविनेरइया। णवरं-चउप्पएहितो विपडिसेहो कायव्वो। प. तमापुढविनेरइया णं भंते ! कओहिंतो उववज्जति? उ. गोयमा !जहा धूमप्पभापुढविनेरइया। णवर-थलयरेहितो वि पडिसेहो कायव्वो। इमेणं अभिलावेणं।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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