SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 691
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४३० १. तत्थ णं जे से मायीमिच्छद्दिट्ठी उववन्नए देवे से णं अणगारं भावियप्पाणं पासइ पासित्ता नो वंदइ, नो नमंसइ, नो सक्कारेइ, नो सम्माणेइ, नो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासइ। से णं अणगारस्स भावियप्पणो मज्झंमज्झेणं वीयीवएज्जा। २. तत्थ णं जे से अमायी सम्मद्दिट्ठि उववन्नए देवे से णं अणगार भावियप्पाणं पासइ पासित्ता वंदइ नमसइ जाव पज्जुवासइ, से णं अणगारस्स भावियप्पणो मज्झमज्झेणं नो वीयीवएज्जा। सेणं तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ'अत्थेगइए वीयीवएज्जा, अत्थेगइए नो वीयीवएज्जा।' प. असुरकुमारे णं भंते ! महाकाये महासरीरे अणगारस्स भावियप्पणो मज्झमज्झेणं वीयीवएज्जा? उ. गोयमा ! एवं चेव। ___ एवं देवदंडओ भाणियव्यो जाव वेमाणिए। -विया. स. १४, उ.३, सु.१-३ ६१. देवाणं देवावासांतराणं वीईक्कमण इड्ढि परूवणं रायगिहे जाव एवं वयासीप. आइड्ढीए णं भंते ! देवे जाव चत्तारि पंच देवावासंतराई वीईक्कंते तेण परं परिड्ढीए विइक्कंते? द्रव्यानुयोग-(२) १. उनमें जो मायी मिथ्यादृष्टि उपपन्नक देव है वह भावितात्मा अनगार को देखता है और देखकर भी न उनको वंदन नमस्कार करता है, न उनका सत्कार सम्मान करता है और न उनको कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप, ज्ञानरूप, मानकर पर्युपासना करता है। ऐसा वह देव भावितात्मा अनगार के बीच में से होकर चला जाता है। २. उनमें जो अमायी सम्यग्दृष्टि उपपन्नक देव है वह भावितात्मा अनगार को देखता है और देखकर वंदन नमस्कार करता है यावत् पर्युपासना करता है। ऐसा वह देव भावितात्मा अनगार के बीच में से होकर नहीं निकलता है। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि“कोई बीच में से होकर निकल जाता है और कोई नहीं निकलता है।" प्र. भंते ! क्या महाकाय और महाशरीर वाला असुरकुमार देव भावितात्मा अनगार के मध्य में से होकर निकल जाता है ? उ. गौतम ! पूर्ववत् कथन करना चाहिए। इसी प्रकार देव दण्डक (चतुर्विध देवों के लिए) वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए। ६१. देवों का देवावासांतरों की व्यतिक्रमण ऋद्धि का प्ररूपण राजगृह नगर में यावत् गौतमस्वामी ने इस प्रकार पूछाप्र. भंते ! देव क्या आत्मऋद्धि (अपनी शक्ति) द्वारा यावत् चार पाँच देवावासों के अन्तरों का उल्लंघन करता है और इसके पश्चात् पर-शक्ति द्वारा उल्लंघन करता है? उ. हाँ, गौतम ! देव आत्मशक्ति से यावत् चार पाँच देवावासों के अन्तरों का उल्लंघन करता है और उसके पश्चात् पर-शक्ति द्वारा उल्लंघन करता है। इसी प्रकार असुरकुमारों के लिए भी कहना चाहिए। विशेष-वे असुरकुमारों के आवासों के अंतरों का उल्लंघन करते हैं, शेष कथन पूर्ववत् है। इसी प्रकार इसी अनुक्रम से स्तनितकुमार पर्यन्त जानना चाहिए। इसी प्रकार वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव पर्यन्त जानना चाहिए। ६२. वाणव्यंतरों के देवलोकों का स्वरूप प्र. भंते ! उन वाणव्यन्तर देवों के देवलोक किस प्रकार के कहे उ. हता, गोयमा ! आइड्ढीए णं देवे जाव चत्तारि पंच देवावासंतराइं वीईक्कंते, तेण परं परिड्ढीए। एवं असुरकुमारे वि, णवर-असुरकुमारावासंतराई, सेसंतं चेव, एवं एएणं कमेणं जाव थणियकुमारे। एवं वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिए वि। -विया. स.90,उ.३,सु.१-५ ६२. वाणमंतराणं देवलोगस्ससरूवंप. केरिसा णं भंते ! तेसिं वाणमंतराणं देवाणं देवलोगा पण्णत्ता? उ. गोयमा ! से जहानामए इहं असोगवणे इवा, सत्तवण्णवणे इवा, चंपगवणे इ वा, चूयवणे इ वा, तिलगवणे इ वा, लउयवणे इ वा, णिग्गोहवणे इ वा, छत्तोववणे इ वा, असणवणे इ वा, सणवणे इ वा, अयसिवणे इ वा, कुसुंभवणे इ वा, सिद्धत्थवणे इ वा, बंधुजीवगवणे इ वा, णिच्चं कुसुमिय माइय लवइय थवइय गुलुइय गुच्छिय उ. गौतम ! जैसे इस मनुष्य लोक में जो नित्य कुसुमित, नित्य विकसित, मौर युक्त, कोंपल युक्त, पुष्प, गुच्छों से युक्त, लताओं से आच्छादित, पत्तों के गुच्छों से युक्त, सम श्रेणी में उत्पन्न, वृक्षों से युक्त, युगल वृक्षों से युक्त, फल फूल के भार से नमे हुए, फल फूल के भार से झुके हुए विभिन्न प्रकार की बालों और मंजरियों रूपी मुकुटों को धारण किये हुए
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy