SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 655
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३९४ उद्धीमुह कलंबुअ पुष्फसंठाणसंठिएहिं, जोअणसाहस्सिएहिं तावखेत्तेहिं साहस्सियाहिं वेउव्विआहिं बाहिरियाहिं परिसाहिं महया-हय-णट्ट-गीय-वाइय-तंती-तल-तालतुडिअ-घण मुइंगपडुप्प वाइअरवेणं दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणा महया उक्किट्ठ सीहणाय बोल कलकलरवेणं अच्छं पव्वयरायं पयाहिणाऽवत्तमण्डलचार मेरु अणुपरियटृति। -जंबू. वक्ख.७,सु.१७३ १५. अंतोमणुस्सखेत्ते इंदस्स चवणाणंतर अण्णइंदस्स उववज्जण परूवणंप. तेसि णं भंते ! देवाणं जाहे इंदे चुए भवइ, से कहमियाणिं पकरेंति? उ. गोयमा ! ताहे चत्तारि पंच वा सामाणिआ देवा तं ठाणं उवसंपज्जित्ता णं विहरति जाव तत्थ अण्णे इंदे उववण्णे भवइ। प. इंदट्ठाणे णं भंते ! केवइअंकालं उववाएणं विरहिए? उ. गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं छम्मासे उववाएणं विरहिए।' -जंबू. वक्ख.७, सु. १७४ १६. बहिया मणुस्सखेत्ते जोइसियाणं उड्ढोववण्णगाइ परूवणं- | द्रव्यानुयोग-(२) ऊर्ध्वमुखी कदम्ब पुष्प के आकार में संस्थित, सहस्रों योजनपर्यन्त तापक्षेत्र युक्त, वैक्रियलब्धि से युक्त, बाह्य परिषदाओं सहित, ज्योतिष्क देव नाट्य-गीत-वादन-रूप त्रिविध संगीतोपक्रम में जोर-जोर से बजाये जाते तन्त्री-तलताल-त्रुटित-घन-मृदंग-इन वाद्यों से उत्पन्न मधुर ध्वनि के साथ दिव्य भोग भोगते हुए उच्च स्वर से सिहंनाद करते हुए मुंह पर हाथ लगाकर जोर से ध्वनि करते हुए, कलकल शब्द करते हुए, निर्मल पर्वतराज मेरु की प्रदक्षिणावर्त मण्डल गति द्वारा प्रदक्षिणा करते रहते हैं। १५. अन्तर्वर्ती मनुष्य क्षेत्र में इन्द्र के च्यवनान्तर अन्य इन्द्र के उत्पात का प्ररूपणप्र. भंते ! उन ज्योतिष्क देवों का इन्द्र जब च्युत (मृत) हो जाता है तब विरहकाल में वे क्या करते हैं ? उ. गौतम ! जब तक दूसरा इन्द्र उत्पन्न होता है तब तक चार या पाँच सामानिक देव मिल कर उस इन्द्र स्थान का परिपालन करते हैं। प्र. भंते ! इन्द्र का स्थान कितने समय तक नये इन्द्र की उत्पत्ति से विरहित रहता है? उ. गौतम ! वह कम से कम एक समय तथा अधिक से अधिक छह मास तक इन्द्रोत्पत्ति से विरहित रहता है। १६. बहिवर्ती मनुष्य क्षेत्र में ज्योतिष्कों के ऊोपपन्नकादि का प्ररूपणमानुषोत्तर पर्वत के बहिर्वर्ती चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा रूप ज्योतिष्क देवों का वर्णन पूर्वानुरूप जानना चाहिए। किन्तु यह भिन्नता है-वे विमानोत्पत्रक हैं, चारोपपन्नक नहीं हैं, वे चारस्थितिक हैं, गतिरतिक नहीं हैं, गति-समापनक भी नहीं हैं। पकी हुई ईंट के आकार में संस्थित, लाखों योजन विस्तीर्ण, तापक्षेत्रयुक्त, नानाविधविकुर्वित रूप धारण करने में सक्षम, बाह्य परिषदाओं सहित वे ज्योतिष्क देव जोर-जोर से बजाये जाते वाद्यों और नाट्य ध्वनियों सहित यावत् दिव्य भोग भोगते हुए मंदलेश्या, मंदातप लेश्या, चित्र-विचित्र-लेश्या युक्त परस्पर अपनी-अपनी लेश्याओं द्वारा मिले हुए पर्वत के शिखरों जैसे अपने-अपने स्थानों में स्थित होकर आस-पास के सम्पूर्ण प्रदेशों को अवभासित करते हैं, उद्योतित करते हैं, प्रभासित करते हैं। १७. बहिर्वर्ती मनुष्य क्षेत्र में इन्द्र के च्यवनान्तर अन्य इन्द्र के उत्पत्ति का प्ररूपणप्र. भन्ते ! जब मानुषोतर पर्वत के बहिर्वर्ती इन ज्योतिष्क देवों का इन्द्र च्युत होता है तब विरहकाल में ये क्या करते हैं ? उ. गौतम ! जब तक नया इन्द्र उत्पन्न होता है तब तक चार या पांच सामानिक देव परस्पर एकमत होकर इन्द्र स्थान का परिपालन करते हैं। प्र. भन्ते ! इन्द्र स्थान कितने समय तक इन्द्रोत्पत्ति से विरहित रहता है? बहिआ णं माणुसुत्तरस्स पव्वयस्स जे चंदिम-सूरिअ गह गण-णक्खत्त-तारारूवातंचेवणेअव्वं। णाणत्तं-विमाणोववण्णगा णो चारोववण्णगा, चारद्विईआ, णो गइरइआ;णो गइसमावण्णगा। पक्किट्ठग-संठाण-संठिएहिं जोअण-सय-साहस्सिएहिं तावखेत्तेहिं सय-साहस्सिआहिं वेउव्विआहिं बाहिराहिं परिसाहिं महया-हय-णट्ट जाव रवेणं दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणा सुहलेसा, मंदलेसा, मंदातवलेसा चित्तंतरलेसा अण्णोण्णसमोगाढाहिं लेसाहिं कूडाविव ठाणठिआ सव्वओ समन्ता ते पएसे ओभासंति, उज्जोवेंति, पचासेंति त्ति। -जंबू. वक्ख.७, सु. १७४ १७. बहिया मणुस्सखेत्ते इंदस्स चवणाणंतरं अण्णइंदस्स उववज्जण परूवणं प. तेसि णं भंते ! देवाणं जाहे इंदे चुए से कहमियाणिं । पकरेंति? उ. गोयमा ! ताहे चत्तारि पंच वा सामाणिआ देवा तं ठाणं उवसंपज्जित्ता णं विहरंति जाव तत्थ अण्णे इंदे उववण्णे भवइ। प. इंदट्ठाणे णं भंते ! केवइअंकालं उववाएणं विरहिए? १. (क) जीवा पडि.३, सु. १७९ (ख) विया. स.८, उ.८,सु.४५ (ग) सूरिय.पा.१९,सु.१००
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy